Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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इस उल्लेखानुसार, एक पक्ष की लम्बी तपस्या के माध्यम से जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने मथुरा में स्थित देवनिर्मित स्तूप के अधिष्ठायिक देव को प्रसन्न कर उसकी सहायता से दीमक आदि कीड़ों द्वारा भक्षित 'महानिशीथ' नामक सूत्र का उद्धार किया था। यह घटना या प्रसंग इस बात को सूचित करता है कि मथुरा से जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का कोई सम्बन्ध अवश्य रहा होगा। अभिलेखीय-साक्ष्यों से यह पता चलता है कि अड,कोट्टक (अकोट) गुजरात से प्राप्त दो धातु-प्रतिमाओं के अंकित लेख में निवृत्ति-कुल के वाचनाचार्य जिनभद्रगणि का उल्लेख मिलता है। डॉ. उमाकान्त प्रेमानन्द शाह ने अड,कोट्टक (अकोट) गांव से प्राप्त हुई दो प्रतिमाओं के अध्ययन के आधार पर यह सिद्ध किया है कि ये प्रतिमाएं ईस्वी सन् 550 से लेकर 600 तक के काल की हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि इन प्रतिमाओं के लेखों में जिन आचार्य जिनभद्र का नाम है , वे विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता क्षमाश्रमण आचार्य जिनभद्र ही हैं।
___उनकी वाचना के अनुसार, एक मूर्ति के पद्मासन के पिछले भाग में 'ऊँ देवाधर्मोयं निवृत्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य'- ऐसा लिखा हुआ है और दूसरी मूर्ति के आभामण्डल में 'ऊँ निवृत्तिकुले जिनमद्रवाचनाचार्यस्य' – ऐसा लेख है। इन लेखों से तीन बातें फलित होती हैं1. आचार्य जिनभद्र ने इन प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित किया होगा। 2. उनके कुल का नाम निवृत्ति-कुल था और 3. उन्हें वाचनाचार्य कहा जाता था।
चूंकि ये मूर्तियां अड,कोट्टक (अकोट) में मिली हैं, अतः यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय भड़ौच के आसपास भी जैनों का प्रभाव रहा होगा और आचार्य जिनभद्र ने इस क्षेत्र में भी विचरण किया होगा। आचार्य जिनभद्रगणि निवृत्ति-कुलं से रहे थे- इसका प्रमाण उन मूर्तियों में अंकन के अतिरिक्त दूसरी जगह कहीं भी नहीं मिलता है। निवृत्ति-कुल की प्रसिद्धि के पीछे निम्न कथन का आधार लिया जा सकता है. भगवान् महावीर की पाट-परम्परा में एक आचार्य वज्रसेन हुए थे। सम्भवतः, वह सत्रहवें पट्ट-परम्परा पर आसीन थे। उन्होंने सोपारक नगरवासी सेठ जिनदत्त और
39 जैन सत्यप्रकाश, अंक 196.
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