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१९०६ ] क्या श्वेताम्बर और दिगम्बर जन समाजमें संप हो सकता है ? ओर वह चाहे जितने बड़े पदवाला क्यों नहो सामाजिक उन्नातिके नियमोंके विरुद्ध काम करनेका साहस न करसकेगा और सारी जातीमें कोई बुराई न फैल सकेगी... . यदि प्रारंभमें बड़े मनुष्योंके अनुचित कामोंसे यह समझकर आंख चुराई जाती है कि सर्व लोगोंके सामने उनकी तुराई होगी वा वे बडे मनुष्य अलग हो जायेंगे तो सामाजिक उन्नतिको हानि होगी और छोटे पदवालोंकी उत्तम सेवाओंसे यह विचार कर आंख फेरली जाती हैं कि उनका अधिक नाम होनेसे वे प्रतिष्ठित पुरुषोंसे बढ जावेंगे जिससे वे प्रतिष्ठित पुरुष अप्रसन्न होंगे तो उत्तम सेवा करनेवालोंका मन मुरझा जाता है और उनका निरादर देखकर दूसरे मनुष्यभी निरुत्साही हो जाते हैं. वृद्धि नहि होने पाती, सत्पराक्रम नष्ट हो जाता है. और पबलिक ओपिनियन निर्बल और निकम्मी हो जाती है.
सामाजिक उन्नतिमें अत्यन्त गुणवान और दीर्घदृष्टि मनुष्य होने चाहिये और प्रत्येक व्यवहारमें उनको सत्यता, न्याय और निष्पक्षताके साथ वादविवाद करना चाहिये. अपनी सम्मति निर्भयतासे देना, औरोंकी सम्मतिको सोच .विचार और धीरजसे सुनना, पंचायतकी व्यवस्थाको मानलेना, पबलिक ओपिनियनके नामको बढाते रहना, उसको सदैव दृढ करना,
और उसका आदर करते रहना, यह सब बातें सामाजिक उन्नतिकी सफलता और वृद्धिकी रीतें हैं. सामाजिक उन्नतिरूपी वृक्षको धनरूपी जलसे जितना अधिक सींचा जाता है.. उतनाही दृढ और हराभरा होकर अधिक फलदायक होता हे !-अतिशुभम्.
. क्या श्वेताम्बर और दिगम्बर जैन समाजमें ...
. . संप हो शकता है?
पाठक! इस प्रश्नको सुनकर एकदम चोंक मत पडो. ज्ञानदृष्टीको खोलकर जरा विचार करो और आपने अपने रोबरू २५०० वर्ष पहिले के समय को खडा करके उसकी सैर करो तो मालूम होगा कि इस भर्तखंडमें एक महान चमत्कारी मूर्ति परोपकारार्थ देश विदेशमें भ्रमण कर रही है, और अपने अखंड ज्ञानद्वारा तीनों कालोंके कृत्योंको जानकर भव्य जीवोंको अपने वचनामृतद्वारा निबोध रही है. उस समय स्वभावि प्रतिपक्षी जीवोंने अपना अपना बैर छोड कर एक दूसरे के साथ मित्र होकर उस उत्तमोत्तम उपदेशनाका · पान कर के चिंतित फल पाया है. उस एक सूर्यके तेजसे तारामंडल ढका हुवा था. उस केवल ज्ञान के प्रकाशसे अन्य ज्ञानों को उत्तेजन मिलता था. तुच्छ बुद्धि के कारण जो संशय उत्पन्न होता था उस को फोरन निराधार होताथा. उस दीपक से अज्ञान तिमिर दूर होताथा. परंतु अफसोस काल गिरता