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धर्मशास्त्र का इतिहास
है।" और चौयी उक्ति यह है-"जो दूसरों पर महापातक मढ़ता है, वह अग्निष्टुत करता है।" वसिष्ठ (२०॥ १-२) ने प्रायश्चित्तों की सामर्थ्य के विषय में उपर्युक्त दो मतों को व्यक्त किया है। मनु (१११४५) का कथन है कि कुछ लोगों के मतानुसार वेदों के संकेत से जान-बूझकर किये गये पापों के शमनार्थ प्रायश्चित्त किये जा सकते हैं। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उपर्युक्त श्रुतिवचन केवल अर्थवाद (अर्थात् प्रशंसा या स्तुति के वचन मात्र) हैं। ऐसा समझना चाहिए कि इन वचनों से यह व्यक्त होता है कि पाप-मोचन के लिए अश्वमेध एवं अन्य उल्लिखित यज्ञ किये जाने चाहिए। इस विषय में 'रात्रिसत्र' न्याय चरितार्थ होता है (जै० ४।३।१७-१९)। कुछ सत्र (बारह वर्षों से भी अधिक अवधियों तक चलने वाले यज्ञ) प्रसिद्ध हैं, यथा--त्रयोदश-रात्र, चतुर्दश-रात्र आदि। इन्हें रात्रिसत्र कहा जाता है। इनके विषय में वैदिक वचन यह है-"जो रात्रिसत्र सम्पादित करते हैं वे स्थिरता (दीर्घजीवन या अलोकिक महत्ता) प्राप्त करते हैं।" इनके सम्पादन के सिलसिले में किसी फल-विशेष का उल्लेख नहीं हुआ है। अतः इस वचन में प्रयुक्त 'प्रतिष्ठा' या स्थिरता को ही रात्रिसत्रों के सम्पादन का फल या प्रयोजन समझना चाहिए (जै. ४।३।१५-१६) ।.यही बात याज्ञ० (३१२२६) के इस वचन के विषय में भी लागू है; 'प्रायश्चित्तों से पापमोचन होता है।' मेधातिथि ने तैत्ति० सं० (६।२।७.५), काठक सं० (८१५) एवं ऐत० प्रा० (३५।२) में वर्णित गाथा की ओर ध्यान आकृष्ट किया है; "इन्द्र ने यतियों को शालारकों (कुत्तों या भेडियों) को अर्पित कर दिया और उसे उस पाप से मुक्ति पाने के लिए उपहव्य नामक कृत्यं करना पड़ा।” मनु (११३४६) ने अपना मत भी दिया है कि अनजान में किये गये पापों का शमन वेदवचनों के पाठ से होता है और जान-बूझकर किये गये पाप विभिन्न प्रायश्चित्तों से ही नष्ट किये जाते हैं।
याज्ञ० (३१२२६) का कथन है कि प्रायश्चित्त जान-बूझकर किये गये पापों को नष्ट नहीं करते, किन्तु पापी प्रायश्चित्त कर लेने से (प्रायश्चित्तों के विषय में कही गयी व्यवस्थित उक्तियों के कारण) अन्य लोगों के संसर्ग में आ जाने के योग्य हो जाता है। लगता है, याज्ञवल्क्य के कहने का तात्पर्य यह है कि जान-बूझकर अर्थात ज्ञानपूर्वक किये गये पापों के फलों (नरक आदि) से मुक्ति नहीं मिलती। यही बात मनु (११।१८९) के इस कथन से भी झलकती है --'प्रायश्चित्त न करनेवाले पापियों से सामाजिक सम्बन्ध नहीं करना चाहिए।' याज्ञ० (३२२०) ने व्यवस्था दी है कि पातकी को अपनी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए ; इस प्रकार (जब वह प्रायश्चित्त कर लेता है) उसका अन्तरात्मा पूर्व स्थिति को प्राप्त कर लेता है और अन्य लोग भी प्रसन्न हो जाते हैं। अतः स्मृतियों में उल्लिखित प्रायश्चित्त-उद्देश्य संक्षेप में निम्न हैं-शुद्धीकरण, पापी के मन को सन्तोष एवं लोगों से संसर्ग-स्थापन। छागलेय (मदनपारिजात, पृ० ७०५, परा० मा० २, भाग १, पृ० २०१) का कथन है कि अनजान में किये गये पापों के फलों से ही प्रायश्चित्तों द्वारा छुटकारा मिलता है, जान-बूझकर किये गये पापों (उपपातकों, आत्महत्या या आत्महत्या करने के प्रयत्न के पापों को छोड़कर) के फलों से मुक्ति पाने के लिए कोई प्रायश्चित नहीं है। परा० मा० (२, भाग १, पृ० २००-२०१) ने जाबाल के एक पद्य एवं देवल के दो पद्यों को उद्धृत कर प्रायश्चित्त की सामर्थ्य के विषय में दो मत प्रकाशित किये हैं और इस विषय में बौधायनस्मृति के मत का भी उल्लेख किया है; ज्ञानपूर्वक किये गये पापों के लिए प्रायश्चित्त नहीं है और अंगिरा ने इसके लिए दूने प्रायश्चित्तों की व्यवस्था दी है। अंगिरा का यह भी कथन है कि वजित कार्य करने से उत्पन्न पापों को प्रायश्चित्त उसी प्रकार नष्ट कर देता है जिस प्रकार अन्धकार को उगता हुआ सूर्य नष्ट कर देता है। मनु (१९४७) का कहना है-"जो द्विज पूर्वजन्म के कारण अथवा इस जन्म में
१२. अनभिसन्धिकृते प्रायश्चित्तमपराधे। अभिसन्धिकृतेप्येके। वसिष्ठ० (२०११-२)।
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