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प्रायश्चित शन की व्याल्या
दन करने की घटना या जानकारी, और 'चित्त' का अर्थ है 'ज्ञान', अतः किसी विशिष्ट घटना की जानकारी के उपरान्त धार्मिक कृत्यों का पालन प्रायश्चित्त है । प्राय० वि० (पृ० ३) एवं प्राय० तत्त्व (पृ० ४६७) ने हारीत को उद्धृत कर एक अन्य व्युत्पत्ति दी है-प्रयत (पवित्र)+चित (संगृहीत), जिसके अनुसार 'प्रायश्चित्त' का अर्थ है ऐसे कार्य यया-तप, दान एवं यज्ञ जिनसे व्यक्ति प्रयत (पवित्र) हो जाता है और अपने एकत्र पापों (चित = उपचित) का नाश कर देता है। जिस प्रकार कि वस्त्र नमक (क्षार), उपस्वेद (गर्मी, उष्णता) तथा खोलते पानी में डालने एवं जल से धोने से स्वच्छ हो जाता है । अतः जैसा कि मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२२०) का कथन है, 'प्रायश्चित्त' शब्द रूह रूप से उस कर्म या कृत्य का द्योतक है जिसे नैमित्तिक कहा जाता है, अर्थात् इसका उपयोग तभी होता है जब कि उसके लिए कोई अवसर आता है। यह पाप-नाश के लिए भी प्रयुक्त होता है अत: यह काम्य भी है। बृहस्पति ने प्रायश्चित्त को नैमित्तिककर्म माना है। देखिए परा० मा० (२, भाग १, पृ० ७) एवं बालम्भट्टी (याज्ञ० ।२०६)।" जाबाल (प्राय० प्र०) के मत से प्रायश्चित्त का सम्बन्ध नैमित्तिक एवं काम्य दोनों कर्मों से है।
बृहस्पति आदि ने पापों के दो प्रकार दिये हैं; कामकृत (अर्थात जो जान-बूझकर किया जाय) तथा अकामकृत (अर्थात जो यों ही बिना जाने-बुझे हो जाय)। कामकृत पापों को प्रायश्चित्तों द्वारा नष्ट किया जा सकता है कि नहीं, इस विषय में प्राचीन काल से ही प्रभूत मतभेद रहा है। मनु (११।४५) एवं याज्ञ० (३।२२६) ने स्पष्ट रूप से कहा है कि अनजान में किये गये पापों का नाश प्रायश्चित्तों अथवा वेदाध्ययन से किया जा सकता है। अब प्रश्न है जान-बूझ कर किये गये पापों के विषय में । गौतम (१९६३-६ = वसिष्ठ०२२।२-५) ने दो मत दिये हैं, जिनमें से एक में कहा गया है कि दुष्कृत्यों के लिए प्रायश्चित्त नहीं किये जाने चाहिए, क्योंकि उनका नाश नहीं होता (उनके फलों के भोग से ही उनका नाश सम्भव है); किन्तु दूसरे मत में कहा गया है कि पाप के प्रभावों (फलों) को दूर करने के लिए प्रायश्चित्त का सम्पादन होना चाहिए। दूसरे मत का आधार चार वैदिक उक्तियों में पाया जाता है। प्रथम यह है-"कोई व्यक्ति पुनःस्तोम के सम्पादन-उपरान्त पुनः सोमयज्ञ में आ सकता है (अर्थात् वह सामान्य वैदिक कृत्य कर सकता है)।" दूसरी उक्ति यह है-"नात्यस्तोम करने के उपरान्त (व्यक्ति वैदिक यज्ञों के सम्पादन के योग्य हो जाता है)।" तीसरी यह है-"जो व्यक्ति अश्वमेध करता है वह सब पापों को पार कर जाता है, और ब्रह्महत्या से मुक्त हो जाता
८. अयं अयः प्राप्तिः। प्रकगायः प्रायः । विहितधर्माकरणस्य प्राप्तिरित्यर्थः। तत्प्रकारविषयं चित्तं चित्तिनिम्। तत्पूर्वकानुष्ठानानि प्रायश्चित्तानि। सायण (सामविधान बा० ११५१)।
९. तत्र हारीतः। प्रयतत्वादोपचितमशुभं कर्म नाशयतीति प्रायश्चित्तमिति। यत्तपःप्रभृतिकं कर्म उपचितं संचितमशुभं पापं नाशयतीति । कृततत्कर्मभिः कर्तुः प्रयतत्वाद्वा। शुद्धत्वादेव तत्प्रायश्चित्तम्। तथा च पुनरीितः। यथा क्षारोपस्वेवचण्डनिर्णोवनप्रक्षालनादिभिर्वासांसि शुष्यन्ति एवं तपोदानयज्ञः पापकृतः शुद्धिमुपयन्ति। प्राय० तत्त्व (पृ० ४६७); और देखिए प्राय० वि० (पृ० ३), मदनपारिजात (पृ०७०३) एवं प्रा०प्र०।
१०. प्रायश्चित्तशवश्चायं पापक्षया नैमित्तिके कर्मविशेषे हवः। मिता० (३।२२०), स्मृतिमुक्ताफल (प्रायश्चित्त, पृ.० ८५९; पराशरमाधवीय २१, पृ० ३)।
११. कर्म के तीन प्रकार हैं-नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य। नित्य वह है जो प्रति दिन किया जाता है, यथासन्ध्या-वन्दन, और जिसके न करने से पाप लगता है। नैमित्तिक वह है जो विशेष अवसर पर किया जाता है, यथाग्रहण के समय स्नान। काम्य वह है जो किसी इच्छा की पूर्ति के लिए सम्पादित होता है, यथा-पुत्र के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ।
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