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धर्मशास्त्र का इतिहास
स्थित कृत्य नहीं किया है उसका समाधान हो जाय या व्यक्ति ने जो निषिद्ध कार्य किया है उसका मोचन हो जाय (यथा सूर्योदय हो जाने के उपरान्त भी यदि दैनिक अग्निहोत्र न किया जाय तब ) । शत० ब्रा० ( १२/४ ) एवं ऐत० ब्रा० ( ३२/३ - ११ ) ने प्रायश्चित्त के लिए कुछ मनोरंजक दृष्टान्त दिये हैं, यथा -जब कोई दुष्ट शूकर, भेड़ या कुत्ता यज्ञिय अग्नयों के बीच से चला जाय, या जब गाय दुहते समय अग्निहोत्र- दुग्ध गिर जाय, या जब दुग्ध- पात्र मुख के बल उलट जाय या वह टूट जानेवाला रहा हो, या दुही जाते समय गाय बैठ जानेवाली रही हो, या जब प्रथम आहुति के उपरान्त ही अग्नि बुझ जानेवाली रही हो, आदि आदि। और देखिए इसी प्रकार के अन्य उदाहरणों के लिए मानव गृ० (१1३), हिरण्यकेशि गृ० (१।५।१-१६), भारद्वाज गृ० (२०३२), कौशिकसूत्र ( ४६ । १४-५५), आश्व० श्री० ( ३।१० ) एवं आश्व० गृ० (३।६-७)। मीमांसा के शब्दों में प्रायश्चित्त या तो ऋत्वर्थ है या पुरुषार्थ । प्रथम प्रकार की व्यवस्था श्रौतसूत्रों में है। दूसरे प्रकार के प्रायश्चित्तों का वर्णन स्मृतियों में हुआ है। हम यहाँ पुरुषार्थं प्रायश्चित्तों का ही वर्णन करेंगे, क्योंकि प्रथम प्रकार के प्रायश्चित्तों की ओर संकेत इस ग्रन्थ के खंड २ में हो चुका है, और वे प्राचीन काल में भी बहुत कम प्रयोजित होते थे ।
अधिकांश निबन्धों एवं टीकाओं ने प्रायश्विन की व्युत्पत्ति प्रायः ( अर्थात् तप) एवं चित्त (अर्थात् संकल्प या दृढ विश्वास ) से की है। इसका तात्पर्य यह है कि इसका सम्बन्ध तप करने के संकल्प से है या इस विश्वास से है कि इससे पापमोचन होगा। कुछ अन्य लेखकों ने अन्य व्युत्पत्तियाँ भी दी हैं। वालम्भट्टी (याज्ञ० ३।२०६ ) के मत से 'प्रायः' का अर्थ है 'पाप' और 'चित्त' का 'शोधन' या शुद्धीकरण ( पक्षधर मिश्र, भक्तूपाध्याय एवं टोडरानन्द ने इसे उद्धृत किया है, किन्तु परा० मा० पृ० २ ने इस उद्धरण के मूल को अप्रामाणिक माना है। हेमाद्रि ने भी एक अज्ञात भाष्यकार की व्याख्या की ओर संकेत किया है; 'प्रायः' का अर्थ है 'विनाश' और 'चित्त' का अर्थ है 'संधान' ( एक साथ जोड़ना) अतः 'प्रायश्चित्त' का अर्थ हुआ 'जो नष्ट गया है उसकी पूर्ति', अतः यह पाप क्षय के लिए नैमित्तिक कार्य हुआ ''
पराशर माघवीय ने एक स्मृति का उल्लेख करके कहा है कि वह प्रायश्चित्त है जिसके द्वारा अनुताप ( पश्चाताप) करने वाले पापी का चित (मन) सामान्यतः (प्रायशः ) पर्षद् (विद्वान् ब्राह्मणों की परिषद् या सभा ) द्वारा विषम के स्थान पर सम कर दिया जाता है अर्थात साधारण स्थिति में कर दिया जाता है। सामविधान की टीका में सायण ने एक अन्य व्युत्पत्ति दी है; 'प्रायः' शब्द 'प्र' एवं 'अय:' से बना है, और इसका अर्थ है जो विहित है उसके न सम्पा
४. प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते । तपोनिश्चयसंयोगात्प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ॥ अंगिरा ( हरवत्त, गौ० २२|१; प्रायश्चित्तविवेक पृ० २ ) ।
५. तदुक्तम् । प्रायः पापं विनिदिष्टं चित्तं तस्य विशोधनम् । इति । चतुर्विंशतिमतेऽप्येवम् । तथा पापनिवर्तनक्षमधर्मविशेष योगरूढोऽयं शब्द इति तस्त्वम् । बालम्भट्टी (याज्ञ० ३।२०६ ) ।
६. यत्तु पक्षधर मिश्रभक्तूपाध्यायटोडरानन्वकृतः - प्रायः पापं विजानीयान्वित्तं तस्य विशोधनमिति व पेठुस्तत्राकरश्चिन्त्यः । प्राय० म० ( ० २); भाष्यकारस्तु प्रायो विनाशः चित्तं सन्धानं विनष्टस्य सन्धानमिति विभागयोगेन प्रायश्चित्तशब्दः पापक्षयायें नैमित्तिके कर्मविशेषे वर्तते । हेमाद्रि ( प्रायश्चित, पृ० ९८९ ) ।
७. प्रायशश्च समं चित्तं चारयित्वा प्रदीयते । पर्षदा कार्यते यत्तु प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ॥ पापिनोनुतापिनश्च चित्तं व्याकुलं सद् विषमं भवति तच्च पर्वदा येन व्रतानुष्ठानेन प्रायशोऽवश्यं समं कार्यते तद् व्रतं प्रायश्चित्तम् । व्रतं चारयित्वा चित्तवैषम्यनिमित्तं पापं प्रदीयते खण्ड्यते विनाश्यते इत्यर्थः । परा० मा० (२, भाग १, १०३) ।
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