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धर्मशास्त्र का इतिहास
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व्यवहार - विषयक शासन के वर्णन में कौटिलीय के उल्लेख एवं याज्ञवल्क्य में बहुत साम्य है । मनु एवं नारद की बातें भी इस विषय में कौटिलीय से मिलती-जुलती-सी दृष्टिगोचर होती हैं, किन्तु उस सीमा तक नहीं जहाँ तक याज्ञवल्कीय से। अब प्रश्न है कि किसने किससे उधार लिया; याज्ञवल्क्य ने कौटिल्य से या कौटिल्य ने याज्ञवल्क्य से ? भाषा सम्बन्धी समानता बहुत अधिक है । सम्भवतः याज्ञवल्क्य ने ही अर्थशास्त्र से बहुत-सी बातें लेकर उन्हें पद्यबद्ध करके अपनी स्मृति में रख लिया है। बात यह है कि याज्ञवल्क्य में कौटिल्य अन्य भी बहुत सी बातें पायी जाती हैं। कौटिलीय अर्थशास्त्र मनुस्मृति से भी पुराना है। कौटिलीय में मानवों के मत की ओर पाँच बार संकेत आया है । अर्थशास्त्र में लिखा है कि मानवों के मतानुसार राजकुमार को तीन विद्याएँ पढ़नी चाहिए; त्रयी, वार्ता एवं दण्डनीति, आन्वीक्षिकी त्रयी का ही एक भाग है। राजमन्त्रियों की संख्या बारह है । मनुस्मृति ( ७:४३ ) ने विद्याओं को स्पष्ट रूप से चार माना है और राजमन्त्रियों की संख्या सात या आठ कही है । दुहलर और अन्य विद्वानों ने इस मतभेद को सामने रखकर यही कहा है कि इस विषय में कौटिल्य ने मानवधर्मसूत्र की ओर संकेत किया है। किन्तु हमने पहले ही देख लिया है कि मानवधर्मसूत्र था ही नहीं । धर्मशास्त्र में मानवों के अतिरिक्त बृहस्पतियों एवं औशनसों के नाम आते हैं, किन्तु आश्चर्य तो यह है कि कौटिल्य ने गौतम, आपस्तम्ब, बौधायन, वसिष्ठ, हारीत की कहीं भी चर्चा नहीं की है। धर्मस्थीय प्रकरण में कौटिल्य ने अपने से पूर्व के आचार्यों की ओर संकेत अवश्य किया है। समानता के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कौटिल्य ने पूर्वाचार्यों की ओर संकेत करके धर्मसूत्रकारों की ही चर्चा की है।
धर्मस्थीय प्रकरण में जो कुछ आया है, उससे प्रकट होता है कि गौतम, आपस्तम्ब, बौधायन के धर्मसूत्रों से बहुत आगे की और अति प्रगतिशील बातें अर्थशास्त्र में पायी जाती हैं; किन्तु मनुस्मृति से कुछ और याज्ञवल्क्य से बहुत पहले ही इसका प्रणयन हो चुका था। कौटिलीय के निर्माण-काल के विषय में हम अन्तःप्रमाणों पर ही अपने तर्कों को रख सकते हैं, क्योंकि बाह्य प्रमाण हमें दूर तक नहीं ले जा पाते । निस्सन्देह यह कृति २०० ई० के बाद की नहीं हो सकती, क्योंकि कामन्दक, तन्त्राख्यायिका तथा वाण ने इसकी प्रशंसा गीत गाये हैं। इसे ई० पू० ३०० के आगे भी हम नहीं ले जा सकते ।
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कौटिलीया में पाँच शाखाओं के नाम आते हैं -- मानवा: (५ बार), बार्हस्पत्या: ( ६ बार ), औशनसाः (७ वार), पाराशराः (४ बार), आभीया: ( एक बार ) । निम्नखित व्यक्तियों के भी नाम आये हैंकात्यायन ( एक बार ), किञ्जल्क (एक बार ), कौणपदन्त ( ४ बार), घोटकमुख (एक बार ), (दीर्घ) चारायण (एक बार ), पराशर ( २ बार ), पिशुन ( ६ बार ), पिशुनपुत्र ( एक बार ), वाहुदन्ति पुत्र ( एक बार ), भारद्वाज ( ७ बार, एक बार कणिक भारद्वाज नाम से), वातव्याधि ( ५ बार ), विशालाक्ष ( ६ बार ) । स्वयं कौटिल्य का ८० बार नाम आया है। महाभारत ने भी निम्नलिखित दण्डनीतिकारों की चर्चा की है - बृहस्पति,
८०. (क) अभियुक्तो न प्रत्यभियुञ्जीत अन्यत्र कलहसाहसा सार्थ समवायेभ्यः । न चाभियुक्तेऽभियोगोऽस्ति । कौ० ३.१; अभियोगमनिस्तीयं नैनं प्रत्यभियोजयेत् । कुर्यात्प्रत्यभियोगं च कलहे साहसेषु च ॥ याज्ञ० २. ९-१० । (ख) प्रतिरोधकव्याधिदुर्भिक्षभयप्रतीकारे धर्मकार्ये च पत्युः । कौ० ३. २; दुर्भिक्षे धर्मकार्ये च व्याघौ सम्प्रतिरोधके । गृहीतं स्त्रीधनं भर्ता न स्त्रियं दातुमर्हति ॥ याज्ञ ०२. १४७ । (ग) सोदर्याण (मनेक पितृकाणां पितृतो दायविभागः । कौ ० ३.५; अनेक पितृकाणां तु पितृतो भागकल्पना । याज्ञ ० २.१२०; आदि आदि (कौ ० ३. १६ एवं याज्ञ ० २.१६९; कौ ० ३. १६ एवं याज्ञ ०२.१३७ ) ।
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