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चलें, मन-के-पार
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चेतना का समन्वय स्थापित कर स्वयं में आनन्द का उत्सव मनाना चाहिये । उसका उत्सव महोत्सव की रंगीनियां पाये, इसकी बजाय उसने स्वयं को दलदल के कगार पर ला खड़ा किया है । इससे उसकी घुटन घटी नहीं है, बल्की सौ गुना बढ़ी है ।
कहते हैं आर्य विकसित सभ्यता के प्रवर्तक हैं। आज... आज आर्यता स्वयं प्रश्नचिह्न बनकर उपस्थित है स्वयं आर्य के समक्ष । गुण का पुजारी कहलाने वाला आर्य भी बेईमानी और बलात्कार पर उतर आये, तो अनार्य की परिभाषा क्या होगी ? आने वाले आर्यों की 'आर्यता' किसी समय इतनी छिछली होगी, यह कभी पूर्वज अनार्यों ने सोचा भी न होगा । अनार्यों ने खुद को मांजने के लिए आर्यों की संस्कृति अपनायी । परिस्थितियाँ चेहरे बदलती हैं । अनार्य कदम बढ़ा रहा है आर्यता की देहरी की ओर, और आर्य आँखें गड़ा रहा है अनार्यता के अन्धकूप की ओर ।
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युगों-युगों से अमृतवाही कही जाने वाली गंगा में भी आज अमृत की खोज करनी पड़ रही है । जिस गंगा के दो चुल्लू पानी से सरोवर पवित्र हो जाते थे, आज वही गंगा मैली हो रही है । स्वर्ग से उतरी उसकी दूध जैसी धारा पर इतना मैल चढ़ गया है कि उसकी धुलाई के लिए धोबी -घाट की तलाश जारी है । एक बात तय है कि पावनताएँ कितनी भी कुण्ठित हो जाएँ; किन्तु एकाग्रचित्त से एकनिष्ठ होकर कोशिश की जाय तो पावनता की वापसी सहज सम्भव है ।
मेरी शिकायत यात्रा से नहीं, भटकाव से है । मनुष्य की जिन्दगी ठौर-ठौर घूमने वाले बंजारे -सी है । केवल पाँव चलें तो कोई शिकायत नहीं, पर मन भी चलता पुर्जा रहे तो जीवन की एकाग्र अखण्डता लँगड़ी खायेगी ही ।
पाँवों का योग और मन का वियोग ही संन्यास है । मन की पलकों का न झपकना ही अध्यात्म के धरातल में ध्यान की निष्ठा है । वह तो घरबारी ही है, जिसके पाँव तो एक घर से, एक परिवार से बँधे हैं; पर मन घर-घर में गौचरी करता फिरता है । मन की इस प्रवृत्ति का नाम ही अन्तर्जगत् का दारिद्र्य है ।
पाँव तो चलने ही चाहिये । चलते पाँव ही तो कर्मयोग की कथा के
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