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चलें, मन-के-पार आस्तिक के मायने हैं श्रद्धा-से-भरा पुरुष और नास्तिक का अर्थ है सन्देह-से-घिरा मनुष्य । अस्तित्व की परमता को श्रद्धा से तो पाया ही जाता है, सन्देह से भी पाया जा सकता है । शर्त यह है कि सन्देह भी समग्र हो, सम्यक् हो, जिसके निराकरण के लिए जीवन को दाँव पर लगा सकों ।
सन्देह को शीर्षासन कराने का एकमात्र उपाय है दर्शन । द्रष्टा बनकर देखना सन्देह-निवारण का आधार-सूत्र है । दर्शन से ही समझे जा सकते हैं संसार-के-सम्मोहन, सत्य-के-प्रकाश-स्रोत । दर्शन ही वह देहरी-दीप है, जिससे निहार सकें बाहर को भी, भीतर को भी । स्वयं की वास्तविकता से समालाप योग है और द्रष्टा-भाव योग का प्रवेश-द्वार है । ध्यान विकल्प के हजार जालों से मुक्ति का आयाम है और दर्शन विकल्प-बोध का बेबाक अध्याय है ।
द्रष्टाभाव ही अध्यात्म की बुनियाद है, आत्मक्रान्ति है, भेद-विज्ञान है । द्रष्टा तो “जो होता है, उसे देखता है । मगर स्वागत वह उसी का करता है, जो उसे सत्य के और समीप ले जाए । द्रष्टा जीता है अचुनाव में । चयन मन का कर्मयोग है । द्रष्टा चयन चुनाव की राजनीति नहीं खेलता । वह चयन को भी विकल्प ही मानता है । आखिर दो विकल्पों में से किसी एक को चुनने का विचार भी एक विकल्प है । मन दर्जी की दुकान है, जहाँ विकल्पों की कतरन हर जहाँ दबी-बिखरी पड़ी है।
__द्रष्टा को होना होता है निर्विकल्प, निःस्वप्न । शुरूआत में तो वह सड़े-गले पत्तों को अलग करता है, परन्तु धीरे-धीरे उसकी यात्रा बीज की ओर होती है, मूल की ओर । पत्ते डालियों में समा जाते हैं, डालियाँ शाखा में, शाखा जड़ में और जड़ बीज में | बीज का वृक्ष-विस्तार से वापस बीज में आ जाना, गंगा का गंगोत्री से लौट आना ही स्वरूप-में-वापसी है । वापसी की यात्रा कठिन है, पर असम्भव नहीं । बहना सरल है, किन्तु तैरना कठिन । पर भुजाओं की प्रतिष्ठा बहने में नहीं, तैरने में है । शक्ति के मूल स्रोत तुम स्वयं हो । स्वयं में स्थित हो जाओ- यही शक्ति का संगठनात्मक रूप है । स्वपदम् शक्तिः - स्वयं में स्थिति ही शक्ति है ।
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