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षट् चक्रों में निर्भय विचरण
२१३ कुछ नहीं, इस द्रव्य-शरीर के भीतर रहने वाला भाव-शरीर ही है ।
मनुष्य के पास छह चक्र हैं । अब हम ध्यान की गहराइयों को छूने का प्रयास करेंगे, जिससे आदमी आदमी रह जाता है और उसके भीतर का बन्दर मर जाता है । यह अपने कमल की पंखुरियों को खोलने जैसा है ।
मनुष्य के शरीर के भीतर छह चक्र हैं । इन्हें समझने से पहले जरा यह समझिए कि मनुष्य के शरीर में नौ द्वार हैं । ये नव द्वार हैं : दो आंखें, दो कान, नाक के दो छेद, मुँह, मल-द्वार और मूत्र-द्वार । मनुष्य अपने शरीर का सारा मैल इन्हीं द्वारों से बाहर निकालता है । जैन मंदिर जाते हैं तो उच्चारण करते हैं 'निस्सीहि'-'निस्सीहि'। इसका अर्थ है जो हमारे मन में मैल भरा था, उसे नौ द्वारों से बाहल निकाल आए हैं । इसका मूल अर्थ है : मानसिक विरेचन । अपने भीतर की माया, कषाय-तंत्र को बाहर उलीच डालो ।
नौका में पानी भरता चला जाएगा तो डूबना भी अवश्यम्भावी हो जाएगा | वह नौका हमें तब ही बचा सकती है, जब उसके छेद बंद करें तथा उसमें भर गया पानी उलीच डालें । नौद्वारों को समझने के बाद जरा गहराई में उतरिए । मनुष्य के शरीर में छह चक्र हैं : पहला है- मूलाधार, दूसरास्वाधिष्ठान, तीसरा- मणिपुर, चौथा- हृदय-चक्र, पांचवां- विशुद्धि-चक्र तथा अंतिम चक्र है आज्ञा केन्द्र/भाव केन्द्र । इन छहों के पार है सहस्रार ।
मनुष्य के शरीर में सबसे नीचे, जो जनन-इन्द्रिय है, उसके नीचे तथा मल-द्वार के ऊपर का स्थान कुण्डलिनी शक्ति का स्थान है । इससे आगे है स्वाधिष्ठान यानि हमारा पेडू । फिर नाभि हृदय, कण्ठ और छठा स्थान है आज्ञा-चक्र ललाट पर, शिव के तीसरे नेत्र का स्थान ही आज्ञा चक्र है । इन्हें पार करने पर आता है सहस्रार । यह मनुष्य के मस्तिष्क के ठीक बीच में है । शिखा का स्थान ही सहस्रार है ।।
सर्वप्रथम, सबसे नीचे जो तत्त्व है, वह है पृथ्वी । उससे ऊपर जल, अग्नि, वायु, आकाश और उससे ऊपर आज्ञा चक्र है । यहाँ व्यक्ति के सारे तत्त्व आकर केन्द्रित हो जाते हैं । आज्ञा-चक्र को पार करने के बाद व्यक्ति अपने सहस्रार में प्रवेश करता है । कुण्डलिनी सबसे नीचे होती
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