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चलें, मन-के-पार है । इसका आकार बिल्कुल वैसा होता है जैसा किसी सपेरे की टोकरी में कुण्डली मार कर बैठे सांप का होता है । कुण्डलिनी भी इसी प्रकार सोई रहती है । इसके अलावा इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी भी होती है । सुषुम्ना तो कुण्डलिनी से आज्ञा-चक्र की ओर सीधी है, हल्की-सी टेढ़ी भी है । इड़ा और पिंगला टेढ़ी ही हैं । इड़ा और पिंगला का सम्बन्ध नीचे कुण्डलिनी और ऊपर आज्ञा-चक्र से जुड़ा है । तीनों नाड़ियां यहाँ समाप्त हो जाती हैं । इड़ा पीले रंग की है तो पिंगला हल्की लाल और सुषुम्ना गहरी लाल । इन तीनों को जब मनुष्य मस्तिष्क के केन्द्र में लाकर केन्द्रित करता है तो वहाँ ॐ का नाद गूंजता है । यह अनुगूंज ही ब्रह्म नाद है । यहाँ व्यक्ति जो अनुभूति करता है, उस अनुभूति का नाम ही 'ज्ञान' है । यह अनुभूति ज्योति-केन्द्र पर होती है ।
जो व्यक्ति अपनी कुण्डलिनी को जगाना चाहता है, वह अपनी सारी ऊर्जा को इस भाव-केन्द्र पर लाकर एकत्र कर ले । जहाँ चेतना, मन, वचन की सारी क्रियाएं और शक्तियां इस भाव केन्द्र पर केन्द्रित होंगी, वहां से कुण्डलिनी को झटका लगेगा और वह जाग्रत होने लगेगी ।
मनुष्य क्रमानुसार चले । पहले चक्र के बाद, दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे चक्र को पार करे । गहराई से देखा जाए तो पहले तीन चक्र तो हमेशा जाग्रत ही रहते हैं । पहले चक्र से कुण्डलिनी पार लग जाए तो धोखा मत खाना कि मैंने साधना में सफलता प्राप्त कर ली । यह सफलता नहीं है । यहाँ मात मिली है तुम्हें । अभी तो अन्दर की दुष्प्रवृत्तियां जगनी शुरू हुई हैं । शुरू के तीन चक्रों में तो व्यक्ति अपने भीतर राख के नीचे दबी आंच को प्रकट करने का प्रयास करता है । इसलिए पहले तीन चक्र बाधक ही हैं । सच्ची साधना तभी प्रारम्भ होती है, जब चौथे चक्र में प्रवेश होता है ।
___ कहा जाता है कि भगवान हृदय में बसता है । यही तो चौथा चक्र है | आत्मा की पहली अनुभूति ही इस चक्र में होती है । मनुष्य जैसे-जैसे एक-एक चक्र को पार करता चला जाएगा, उसकी विशुद्धता भी बढ़ती चली जाएगी ।
आइए ! इन चक्रों को अब हम आम जीवन से जोड़ने का प्रयास
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