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तुर्या : भेद-विज्ञान की पराकाष्ठा
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होता पानी में, चाँद की झलक होती है । स्वप्न में वे तैरते रहते हैं, जो हमने जागकर संसार से लिये हैं ।
स्वप्न वास्तव में प्रतिबिम्बों का ज्ञान है । जागृति प्रतिबिम्बों के आधारों का ज्ञान है । सुषुप्ति ज्ञान - शून्य है ।
हम न जागृत हैं, न स्वप्न और न सुषुप्त । हमारा व्यक्तित्व तीनों से अलग है । जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति तो शरीर और चित्त के बीच चलने वाला गृह-युद्ध है । आत्मा का गृह-युद्ध से भला क्या सम्बन्ध ? वह न कर्त्ता है, न भोक्ता । वह मात्र साक्षी है । साक्षी को कर्त्ता बना लेना ही माया और मिथ्यात्व है ।
जो सोने, जगने और भटकने से अतिक्रमण कर लेता है, उसकी अवस्था परम है । इसे तुर्या अवस्था कहते हैं । तुर्या - अवस्था परम ज्ञान है । परम ज्ञान के मायने हैं स्थिर - प्रज्ञता । तुर्या में प्रवेश अन्धकार से मुक्ति है, प्रकाश में प्रविष्टि है । यही वह अवस्था है, जिसे शंकर ने शिवत्व कहा है । जिनेश्वर का जिनत्व और बुद्ध का बुद्धत्व यही है । रवीन्द्र के शब्दों में
जहाँ चित्त भय-शून्य, जहाँ सिर उन्नत ज्ञान मुक्त; प्राचीर गृहों के, अक्षत वसुधा का जहाँ न करके खण्ड - विभाजन दिन-रात बनाते छोटे-छोटे आँगन ।
प्रति हृदय - उत्स से वाक्य उच्छ्वसित होते हों जहाँ, जहाँ कि अजस्र कर्म के सोते । अव्याहत दिशा-दिशा, देश-देश बहते चरितार्थ सहस्रों-विध होते रहते ।
तुर्या ऐसी ही अवस्था है परम विकासमयी, प्रकाशमयी । तुर्या वह अवस्था है, जहाँ दृश्य भी रहता है और द्रष्टा भी । सिर्फ खो जाती है बीच की माया । टूट जाता है दोनों का सम्बन्ध-योजक तादात्म्य ।
तुर्यां की प्राप्ति के लिए सबसे कारगर उपाय है- भेद - विज्ञान | भेद - विज्ञान
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