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तुर्या : भेद-विज्ञान की पराकाष्ठा
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भूख शरीर का स्वभाव है । भोजन मैं नहीं कर रहा हूँ, शरीर को करवा रहा हूँ । वासना भी उठे, तो जानो वासना शरीर की उपज है । मैं वासना-ग्रस्त नहीं हूँ । देह का भान भूलने से शान्ति और स्फूर्ति दोनों का अनुभव होता है ।
शरीर को जो चाहिये, उसे दीजिये । गर्मी लगे तो हवा की सुविधा दीजिये । मैल चढ़े तो उसे नहलाइये । भूख लगे, तो खिलाइये, पर इस स्मृति के साथ कि यह सब मैं नहीं हूँ । जब तक शरीर मेरे साथ है, उसे उसकी सुविधाएँ देंगे । मैं कौन हूँ- मैं इससे अलग हूँ ।
अलगाव - बोध की यह प्रक्रिया भेद - विज्ञान है । ध्यान और अध्यात्म को जीवन में घटित करने के लिए यह परम विज्ञान है । सर्वप्रथम दिन में यह विज्ञान आत्मसात् करें । दिन का अर्थ है वह समय जब आँखें खुली रहें; आदमी जगा रहे । सारे काम जागकर ही किये जाते हैं । इसलिए जागने से ही तुर्या की शुरुआत है । हम जो भी करें, जो भी देखें, जिसे भी छुएँ, सब करते हुए भी स्वयं को सबसे अलग जानें । ऐसा लगे मानो यह देखना, करना और छूना महज एक सपना है ।
संसार एक सपना है । सपने को सपना मानना आत्म- जागरूकता को प्रोत्साहन है । धीरे-धीरे, रात को भी जो सपने आते हैं, उनके प्रति भी जागरूकता बढ़ेगी । सपना जैसे ही टूटे, उसकी असलियत को पहचानने की कोशिश करो, उसका सम्यक् निरीक्षण करो । चित्त की एकाग्रता बनेगी । शून्य उभरेगा । उसमें उतरो । शून्य को देखो, शून्य- द्रष्टा बनो ।
आप पाओगे कि सपना खो गया । सुषुप्ति में जागरूकता / सजगता / सचेतनता अवतरित हो गई । जहान की निगाहों में हम सोये हैं, पर गीता कहेगी योगी सुषुप्ति के मन्दिर में जागा है । जाग्रत - सुषुप्ति का नाम ही समाधि है और स्वयं को ज्ञेय से भिन्न ज्ञाता मात्र जान लेना आत्मज्ञान है; यह तुर्यावस्था है, जहाँ साधक दिखने में आम आदमी जैसा ही होता है । पर बड़ा भिन्नज्ञाता - मात्र/साक्षी - मात्र; बुद्धि से परे, तर्क से परे, सिद्धत्व वरे ।
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