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चलें, बन्धन-के-पार
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सारा संसार कारागृह है । आदमी इस कारागृह में जंजीरों से जकड़ा है, बेड़ियों से बंधा है । मनुष्य की नींद इतनी गहरी है कि वह अपने बन्धनों को बन्धन नहीं मान रहा है । घर की तो याद आती ही नहीं है । कारागृह को ही घर मान बैठा है । देख नहीं रहे हो कैदियों को ? जिन्होंने कारागृह के प्रकोष्ठों को भी फूलों और चित्रों से सजा रखा है । कारागृह से मुक्त तो वही हो सकता है, जो कारागृह को कारागृह माने ।
बन्धन को आनन्द मानने वाला व्यक्ति प्रबुद्ध नहीं, वरन, पिंजरे का पंछी है । मुक्ति के गीत तो तब कहीं से सुनायी देते हैं, जब सीखचों को आत्म- स्वतन्त्रता का बाधक और बन्धन माना जाता है । उन लोगों को क्या कहेंगे, जिन्हें बीस वर्ष जेल में ही रहने के बाद जब मुक्त किया जाता है, तो वे उल्टा जेल में ही रहना चाहते हैं । जो प्रेम घर के प्रति होना चाहिए था, वह कारागृह के प्रति हो गया । जो अपना सम्पूर्ण ध्यान अपनी स्वतन्त्रता पर केन्द्रित करता है, वही आजादी के संदेश का मालिक है । बन्धन उसी के गिरते हैं । विनिर्मुक्त वही होता है । ऐसे ही लोग कहलाते हैं- निर्गन्थ और निर्बन्ध ।
स्वतन्त्रता के लिए श्रम तो सभी कर सकते हैं, जरूरत है उस सम्बोधि की, जो समझा सके हमें बन्धनों को ।
राजा उदायन ने चण्डप्रद्योत से युद्ध किया । चण्डप्रद्योत हार गया । उसे बन्दी बना लिया गया । वह जंजीरों से जकड़ लिया गया उदायन की यह विशेषता कि उसने प्रद्योत को उन जंजीरों से बाँधा था, जो सोने की थी। भले ही उदायन को इस बात की प्रसन्नता हो कि उसने सोने की जंजीरों से बाँध कर प्रद्योत को कुछ सम्मान दिया है । पर जिसने बन्धन को बन्धन मान लिया, चाहे वह लोहे की जंजीर का हो या सोने की, वह उससे मुक्त होना ही चाहेगा । राजा कभी बन्दी नहीं होता है और जो बन्दी होता है वह स्वयं को कभी सम्राट नहीं समझ पाता । सम्राट तो वह है जो स्वतन्त्र है, स्वयं के सन्देशों का स्वामी है ।
हर मनुष्य सम्राट है, यदि नहीं है तो हो सकता है । हर कोई
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