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चलें, मन-के-पार अच्छी है। शरीर के द्वारा ली जाने वाली नींद तो शरीर का भोजन है. किन्तु अन्तःकरण द्वारा ली जाने वाली उबासियाँ प्रमत्तता की पृष्ठभूमि है । समाधि तो जागती हुई नींद का नाम है । समाधि एक ऐसी निमग्नता है, जिसमें जगी हुई नींद के सिवा कुछ भी नहीं बचता ।
समाधि को जीवन की परछाई बनाने के लिए हमें जागरूकता के साथ सम को जीवन का हृदय बनाना होगा । सम की जरूरत है जीवन में आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों में स्वयं को अनुद्विग्न और असन्तुलित होने से रोकने के लिए । सम का उपयोग है सन्तुलन के लिए ।
जीवन की जमीन काफी उबड़-खाबड़ है । रोड़ों और भाटों की किलेबन्दी यहाँ कदम-कदम पर है । जीवन के मार्ग पर अवरोधक चिह्न आने नामुमकिन नहीं है, किन्तु उन अवरोधों से विचलित हुए बिना लक्ष्य की ओर बढ़ते चलना आत्म-संकल्पों के लिए साहसपूर्वक संघर्ष करना है ।
जीवन में आने वाली हर सफलता और असफलता, अनुकूलता और प्रतिकूलता की दायीं-बायीं दिशाओं में स्वयं का अन्तर्-संतुलन बनाये रखना ही समाधि की व्यावहारिकता है । क्या तुमने नहीं देखा है बांस से बंधी रस्सियों पर नाच करते किसी कलाकार को ? दायें-बायें के बीच संतुलन ही जीवन के रस्सी-नृत्य का आधार है ।
__इसलिए सम को जीवन का अभिन्न अंग बनाने वाला ही तनाव-मुक्त शांति-साम्राज्य में प्रवेश पाने का अधिकारी है । आखिर समाधि भी सम का ही विस्तार है । संवर भी सम से ही बना है । सम्यक्त्व और सम्बोधि भी सम की गोदी में ही किलकारियाँ भरते हैं । मन, वचन और काया की हर प्रवृत्ति के मध्य यदि सम को ही मध्यवर्ती बना दिया जाए, तो भौतिकता भी आध्यात्मिकता में लील जाएगी । मन, वचन, काया और कर्म का अन्तरात्मा से जगने वाला प्यार ही चैतन्य-दर्शन की प्राथमिक भूमिका है ।
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