Book Title: Chale Man ke Par
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 245
________________ चलें, मन-के-पार मुझे तो आखिर वो पाना है जो हकीकत में 'मैं' हूँ । उस 'मैं' की उपलब्धि हो तो महाजीवन के द्वार का उद्घाटन है । यदि मैं की उपलब्धि में मृत्यु भी हो जाए, तो वह मेरे द्वारा मेरे ही लिए होने वाली शहादत है । अरिहंत मेरी ही पराकाष्ठा है और अरिहंत की मृत्यु, मृत्यु नहीं, वरन् महाजीवन का महा महोत्सव है । मैं ऐसी ही मजार का दिया जला रहा हूँ, जो जीवन को मृत्यु-मुक्त रोशनी दे । हमें पार होना है हर घेरे से, हर सीमा से, हर पर्दे से । आखिर असीम सीमा के पार ही मिल सकता है । सीमाओं के पार चलने के लिए स्वयं को दिया जाने वाला प्रोत्साहन ही जीवन का संन्यास है । यदि फैलाना हो तुम्हें अपने आपको, तो हाथ को ले जाओ अनन्त तक । यदि विस्तार से ऊब गये हो तो लौटा लाओ स्वयं को जीवन के महाशून्य में; बसा है जो शरीर के पार, विचार-के-पार, मन के पार । २३६ शरीर का तादातम्य टूटना ही विदेह अनुभूति है । विचारों द्वारा मौनव्रत लेना ही जीवन में मुनित्व का आयोजन है । मन के पार चलना ही अन्तरात्मा में आरोहण के लिए 'सिगनल ' पाना है । 'मैं' तो मन से भी दो कदम आगे है। मुझे तो अभी तक पार करनी है कई सीढ़ियाँ । आत्म-स्रोत संधा पड़ा है मन, वचन और शरीर के तादात्म्य की काली चट्टानों से । चट्टानों को हटाना ही स्रोत के विमोचन का आधार है । सौन्दर्य-दर्शन के लिए पर्दों और घूंघटों का उघाड़ना अनिवार्य है । शरीर को अपने अनुशासन में रखने के लिए हठ योग है और मन की वैचारिक फुदफुदी पर नियंत्रण पाने के लिए मंत्रयोग है । जिनका शरीर पर नियंत्रण है और विचारों पर अनुशासन है, वे बिना आसन और मंत्र - साधना के भी योगी हैं । सत्य तो यह है कि जीवन के बाहरी और भीतरी परिवेश पर नियंत्रण करना ही जीवन-योग से मुलाकात है । जीवन योग हर योग से ऊँचा है । राज-योग जीवन-योग से दो इंच ऊपर नहीं है । जीवन-योग को साधने के लिए राज-योग है । विपश्यना या प्रेक्षा भी जीवन-योग के लिए है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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