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करें, चैतन्य-दर्शन __ जीवन-योग का मतलब है उस तत्त्व से मिलन जो सिर्फ व्यक्ति के जीते-जी ही जीवित नहीं रहता है, अपितु मृत्यु के बाद भी जिसका अन्त्येष्टि-संस्कार नहीं किया जा सकता । वह आत्म-तत्त्व ही जीवन-योग का आधार है । मृत्यु सत्य नहीं, मृत्यु एक झूठ है । उसकी पहुँच चोलों के परिवर्तन तक सीमित है । मैं तो पार हूँ मृत्यु की हर पैठ के ।
शरीर, विचार और मन पदार्थ हैं, जबकि आत्मा ऊर्जा । अपनी ऊर्जा को अपने लिए समग्रता से उपयोग करना ही अन्तर-यात्रा है । इस यात्रा की शुरूआत है अपने आप से | मित्र ! जरा पूछो स्वयं से “मैं कौन हूँ' ?
__मैं कौन हूँ- यह मंत्र नहीं है, यह जिज्ञासा है । मैं अहंकार का प्रतीक नहीं है, बल्कि मैं उस संभावना को संबोधन है, जिसकी मौलिकता जीवन के नखशिख तक जुड़ी है । जीवन की एकाग्रता अपनी समग्रता के कन्धे पर मैं से ही फली-फूली है । मैं अंहकार का रूप तब लेता है, जब उसका पोषण जीवन के बाहरी परिवेश से होता है । जहाँ भाषा अन्तर्-जीवन से मैं की परिभाषा पूछती है, वहाँ तो उल्टा अहंकार दुलत्ती मार खा बैठता है; किन्तु जहाँ अहंकार का मस्तक झुकता है, वहीं स्वयं से स्वयं की मौलिकता पूछने का भाव जन्मता है ।
'मैं' पार है- मेरे शरीर से, मेरे विचार से, मेरे मन से । अन्तर में आरोहण मन, वचन और शरीर की हर गतिविधि के पार है, इसलिए अपने आपसे यह पूछना मैं कौन हूँ । हृत्तंत्री के तार-तार में 'मैं कौन हूँ' के मार्के का संगीत त्वरा से झंकृत करना अहम् से जन्मे 'मैं' को खुली चोट है । यह चोट जीवन के मौलिक 'मैं' की खोज का प्रयास है । अपने आप से पूछा जाने वाला यह प्रश्न चैतन्य-दर्शन के लिये अपनी जिज्ञासा को प्रकट करता है ।
जीवन की देहलीज पर आत्म-जागरण का प्रहरी चौबीस घण्टे लगाना जरूरी है । साधना जीवन से अलग-थलग नहीं है । जीवन जीवन्तता का परिचय-पत्र है और जीवन्तता जागरण की सगी बहिन है । जागरण और जीवन्तता की आपसपूरी का व्यवहार बिना किसी ननुनच के निभाना ही होता है । सोने का जागरण से कैसा संबंध ? दुश्मन को तो दूर से ही सलामी
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