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चलें, मन-के-पार
२३० सम्राट बने, यही तो मेरा प्रयास है ।
हर व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने बन्धनों को समझे और फिर उन्हें गिराये । बन्धन को समझ जाने वाला ही बन्धन-मुक्ति के लिए अपने प्रयासों के पंख खोलता है । बन्धन यदि लोहे और सोने की जंजीरों के होते, तो शायद हम उन्हें बहुत जल्दी देख-समझ लेते । बन्धन तो भीतर के हैं । भीतर के बन्धनों को समझने के लिए भीतर की ही दृष्टि चाहिए। यह प्रज्ञा-क्रान्ति है, चैतन्य-स्फूर्ति है ।।
इन्द्रियाँ बाहर के बन्धनों को देखती हैं, समझती हैं । इन्द्रिय-संलग्नता से दो इंच आगे बढ़ो । तभी समझ पाओगे अपने बन्धनों को ।
अन्तर्यात्रा भावनात्मक सफर है । अन्तर्यात्रा के लिए अतीन्द्रिय होना अनिवार्य है । जरा एक विहंगम दृष्टि तो दौड़ाओ बन्धनों पर, बन्धनों-पर-चढ़े-बन्धनों पर । गिनना मुश्किल होगा उन बन्धनों को । घास के ढेर में दबी-गुमी सुई को ढूँढना कठिन जरूर होगा, पर असम्भव नहीं । मकान तुम पर ढह गया, इसका मतलब यह तो नहीं कि तुम मकान से गायब हो गये । मलबे में कहीं फँसे हो तुम । स्वयं के सामर्थ्य से यदि बाहर निकल आओ तो बलिहारी है । नहीं तो सहयोग लो, जीवन के लिए, आत्म-स्वतन्त्रता के लिए ।
__जहाज भटक जरूर गया, मगर वो देखो बड़ी दूरी पर कोई मशाल जल रही है । रोशनी की मशाल बनकर, ले चलो स्वयं को उसी प्रकाश-पुँज की ओर । मन के सागर में हमने जीवन की नैया उतार रखी है । नाविक तुम स्वयं हो । अन्तर्-बोधि और अन्तर्-दृष्टि की पतवारें अपने हाथ में थामो । जो मशाल दिखायी दे रही है वही है तुम्हारी प्रगति, वही है तुम्हारी प्रतिष्ठा । भँवर-जाल को देखकर घबराओ मत, घड़ियाल/मगरमच्छ से काँपो मत । मौत भले ही सामने खड़ी हो, पर रोओ मत । घड़ियाली
आँसू गिराने से कुछ नहीं होगा । जीवन के लिए कुछ करना होगा । जो बिदक गया, वह खत्म हो गया और जो चल पड़ा साहसपूर्वक, उसने जिनत्व
और बुद्धत्व की जोखिम भरी यात्रा पूरी कर ली । हमें चलना है पिंजरे से बाहर आकाश में, नीड़ से विराट में, राम से विराग में और विराग से
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