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चलें, मन-के-पार
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रहें तो रहें, काँटे रहें तो रहें, उनसे झगड़ा कैसा ? फूल का काम केवल खुद को खिलाना है । काँटों की ही खबर रखोगे, तो काँटों से ही बिंध जाओगे । फूल खिलता है निजता से, निजत्व के बोध से, स्वयं के सर्वोदय से । ऊपर उठो और खिलो । ध्यान केन्द्रित हो वीतराग पर ।
चित्त की स्थिरता के लिए वीतराग बेहतरीन विषय है । श्रमण परम्परा ने तो अपना आराध्य उसी को चुना है, जो वीतराग है । वह तो तीर्थंकरत्व और सिद्धत्व की अनिवार्य शर्त मानता है वीतरागता को । उसके अनुसार वह हर व्यक्ति अमृत- पुरुष हैं जो वीतराग है ।
वीतरागता का देवदार वृक्ष घर में भी खिला सकते हो और साधु-संन्यासियों की तरह गृह-मुक्त होकर भी । वीतराग होने की पहल वही कर सकता है, जिसने जीवन के द्वार पर मृत्यु को पल-प्रति- पल उतरते हुए देख लिया है, जीवन के चारों ओर लगे दुःख-दर्द के घेरे को समझ लिया है । मृत्यु का दर्शन ही जीवन में संन्यास की क्रान्ति है । आगे कदम तभी बढ़ाना, जब स्वयं को काँटों में पाओ । यह बोध ही शून्य में छलांग भरने के लिए बेहद होगा कि घर में आग लगी है और मैं लपटों की व्यूह में फँसा हूँ । आग में हो तो आग से बाहर कूदो । बाहर सावन है । बरसाती रिम-झिम है । सुरक्षा का धरातल है । सब हैं तुम्हारे साथ, पर तुम अपने फूल को उनसे ऊपर ले उठो ।
परिवेश खतरनाक नहीं होता । खतरनाक परिवेश में स्वयं का प्रवेश होता है । संसार में रहना बुरा नहीं है। बुरा तो है स्वयं में संसार को बसा लेना । पानी में रहने के कारण कमल की आलोचना नहीं की जा सकती । कमल का सौरभ और सौन्दर्य तो तब धूल-धुसरित होता है, जब कीचड़ उस पर चढ़ आता है । वीतराग को अपना विषय बना लेने वाला चित्त राग-द्वेष के कर्दम से उपरत हो जाता है । बनें वीतराग, आराध्य हो वीतराग ।
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