Book Title: Chale Man ke Par
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 240
________________ चलें, बन्धन-के-पार २३१ वीतराग में । स्वयं के रागात्मक बन्धनों को समझो और अपने चित्त को जीवन के वीतराग - विज्ञान पर ध्यानस्थ करो । पंतजलि कहते हैं- 'वीतराग विषयम् वा चित्तम्' । वह चित्त में स्थिर हो जाता है, जो वीतराग को अपना विषय बनाता है । मनुष्य का मन्दिर बना रहना चाहिए स्वयं के लिए । मनुष्य के मन्दिर गिरे और राग-द्वेष के खण्डहर उभरे, यह तो जीवन के नैतिक मूल्यों और आध्यात्मिक मापदण्डों से पलायन है । मनुष्य, भगवान का मन्दिर है । यह किसी से चिपकने व टूटने के लिए नहीं है । यह तो परमात्मा के बसने के लिए है, परमात्मा बने रहने के लिए है । राग का अर्थ है चिपकना - चोंटना, जैसे चीचड़ गाय के थनों से चोंटता है । राग प्रेम नहीं है । राग और प्रेम में फर्क है प्रेम चोंटना नहीं है, दो फूलों का परस्पर मिलना है । अपने मन-के-पंजों से किसी से चोट जाना राग है । द्वेष टूटना है, न केवल टूटना वरन् बौखलाना भी है । राग खतरनाक है पर द्वेष खौफनाक है । द्वेष के बजाय राग से मुक्त होना सरल है । राग वीतरागता में बदले, यह कोई जरूरी नहीं है । राग का विलय द्वेष में होता है । द्वेष से राग समाप्त नहीं होता, वरन् राग द्वेष की परछाई बन जाता है । विराग राग के विपरीत है । विराग राग से मुक्त होना नहीं है । वैरागी राग के विपरीत तो हो जाता है, किन्तु बोधपूर्वक नहीं, द्वेषपूर्वक । चाहे किसी से राग करो या किसी से द्वेष, बन्धन की बेड़ियाँ तो दोनों में ही होंगी । चित्त वृत्तियों से ऊपर उठने के लिए न तो राग से द्वेष हो और न ही द्वेष से राग हो । वीतराग न तो राग से द्वेष करता है और न द्वेष से राग । वीतराग तो जीवन की पराकाष्ठा है । विराग, राग और वीतराग दोनों के बीच का पैंडुलम है । वीतराग होने का अर्थ है राग से ऊपर उठना । राग के विपरीत होना अलग बात है, किन्तु राग से ऊपर उठ जाना द्वेष से भी मुक्त हो जाना है । इसलिए न तो किसी से चोंटो और न ही किसी से वैमनस्य रखो । ऊपर उठना ही शिखर यात्रा है । पत्तियाँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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