Book Title: Chale Man ke Par
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 233
________________ चलें, मन-के-पार २२४ समय की धारा में अतीत और भविष्य से वर्तमान पर केन्द्रीकरण बेहतर है, परन्तु मनुष्य के लिए तो आत्म-श्रेयस्कर खुद-में-खुद-का-जगना ही है । सपने से नींद भली और नींद से जागृति । स्वप्न भटकाव है और नींद मूर्छा । नींद शरीर की आवश्यकता है, परन्तु यहां नींद का सम्बन्ध शरीर से नहीं, वरन् मन की मूर्छा से है । मूर्छा ही निद्रा है । निद्रा के ज्ञान का अर्थ है- मूर्छा का ज्ञान । मूर्छा को समझना ही मूर्छा से छूटने का आधार है। जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अलग-अलग हैं । तीनों के अलगाव का बोध जीवन में ज्ञान की क्रांति है । अध्यात्म की शुरुआत जागृति से होती है और उसकी पूर्णता सुषुप्ति में । हम जिसे जागना कहते हैं, वह तो ऊपर-ऊपर है । रात को सोये थे और सुबह आँखें खोलीं, यह नींद से उठना तो शारीरिक घटना हुई । इस जागरण से बाहर का जगत तो दिखाई देगा, परन्तु भीतर के जगत का कहीं कोई दर्शन न होगा । संसार को देखना आँखों का जागरण है और आत्मा को पहचानना अन्तर् के उपयोग का जागरण है । अभी तक मनुष्य को यह ज्ञान कहां है कि मैं कौन हूँ । उसे बाहर की तो सारी वस्तुएँ और हलचल दिखाई पड़ती है, पर यह कहाँ दिखाई देता है कि मैं कौन हूँ । सुई तो खोई पड़ी है घास के ढेर में । आत्मा का कहीं कोई अता-पता नहीं । हमने तो रात को सोना सुषुप्ति मान लिया और सुबह नींद से उठना जागृति । जागृति में बाहर के जगत का ही मूल्य बना रहता है । सुषुप्ति सोना है । सोने में न तो बाहर के जगत का महत्व है और न अन्तर-जगत का । सोया आदमी जीवित मुर्दा है । सोने के बाद होश कहां रहता है । भीतर और बाहर का निजत्व और परत्व का सोना तो गहन अन्धकार में प्रवेश है । स्वप्न बाहर और भीतर दोनों से ही अलग यात्रा है । स्वप्न में अन्तर्जगत से सम्बन्ध का तो कोई सवाल ही नहीं उठता । स्वप्न में तो होती हैं वे बातें, जिनका मन पर संसार का प्रतिबिम्ब बना है । चाँद नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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