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षट् चक्रों में निर्भय विचरण
२१७ अपनी आँखों के बीच पुतलियों को नाक के अग्र भाग पर टिकाइएगा । आपको एक अपूर्व, अद्भुत आभामंडल नजर आएगा । इसकी शुरूआत नाभि-चक्र से ही हो जाती है, मगर पूर्णता ज्ञान-चक्र से प्रारम्भ होती है । व्यक्ति ज्यों-ज्यों अपने आपको निर्मल से निर्मलतर करता चला जाता है, उसका आभामंडल भी शनैः शनैः प्रकट होने लगता है ।
सोवियत संघ ने फोटोग्राफी के क्षेत्र में एक आविष्कार किया है । इसका नाम उन्होंने दिया है किरलियान । आभा मंडल को देखने का यह भी एक तरीका है । इसमें सभी रंग साफ-साफ नजर आ जाते हैं । इसी प्रकार जब साधक आज्ञा-चक्र में प्रवेश करता है, तो सिर्फ सफेद रंग नजर आता है । लेकिन क्या आप जानते हैं कि दुनियाँ के जितने भी रंग हैं, वे सफेद रंग में से ही निकले हैं और उसी में समाविष्ट हैं ?
इसे आप प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं । सूर्य का प्रकाश सफेद होता है । मगर वर्षा होने के तुरन्त बाद जब ओस व वर्षा के छोटे कणों पर यह प्रकाश पड़ता है तो सात रंगों का आकर्षक इन्द्रधनुष नजर आने लगता है । इसी प्रकार प्रिज्म के एक टुकड़े से सूर्य की किरणें गुजारिएआप इसके प्रतिबिम्ब में कई रंग निकलते देखेंगे ।
जो लोग यह सोचते हैं कि पेड़ से नीचे गिरे फल खाकर ही काम चला लेंगे, महावीर की भाषा में वे शक्ल लेश्या में प्रवेश कर रहे हैं, आज्ञा-चक्र में प्रवेश की तैयारी कर रहे हैं । इसके विपरीत फल के लिए जो व्यक्ति पेड़ को ही काटने लगा है, वह मूर्छित अवस्था में है और आत्म-प्रवंचना में लगा है ।
जहाँ राग, मूर्छा होती है, वहाँ व्यक्ति यही सोचता है कि सामने वाले की जड़ को काट डालूं । पेड़ तो एक प्रतीक है । आदमी दूसरे
आदमी के पाँव ही काट डालना चाहता है । अगर दूसरे का दिवाला निकलता है तो वह बहुत ही प्रसन्न होता है । यह सोचकर कि 'चलो एक और गया', वह अपने मन को झूठी दिलासा देता है । आदमी यही करता चला जाता है और उसका यह कृत्य रुका नहीं है, जारी है । आदमी चाहता है दूसरे को काटूं, उखाड़ फेंकू ।
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