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चलें, मन के-पार अलग ही सोच रहा था । वह मन में सोच रहा था कि पेड़ के नीचे यदि कुछ आम गिरे हुए मिल गए तो खा लूंगा ।
महावीर की बोधकथा तो यहाँ समाप्त हो जाती है । न तो किसी ने पेड़ उखाड़ा, न किसी ने तना तोड़ा, न किसी ने आम खाया, मगर अपनी-अपनी सीमा में एक-एक चक्र तो पूरा कर ही लिया । जो आदमी यह सोच रहा था कि 'आम के नीचे गिरे फल खा लूंगा ।' महावीर की भाषा में इसने भाव-शरीर के आज्ञा-चक्र का स्पर्श किया है । जो पथिक पेड़ को जड़ से काटने की सोच रहा है, वह मूलाधार में ही अटका है ।
महावीर ने मूलाधार को नाम दिया 'कृष्ण लेश्या' और आज्ञा-चक्र को कहा 'शुक्ल लेश्या' । महावीर के अनुसार आदमी कृष्ण लेश्या से शुक्ल लेश्या की ओर यात्रा करता है | वह शुक्ल लेश्या को भी पार कर जाए तो वहाँ उसे सहस्रार के दर्शन होंगे और जब वह सहस्रार को पाता है तो इसका अर्थ है कि उसने वीतरागता को आत्मसात् कर लिया । उसके भीतर न बदी होती है और न सुदी- वह दोनों के पार होता है । महावीर ने तीन-तीन लेश्याएं बताई : कृष्ण, नील और कापोत तथा तेज, पद्म एवं शुक्ल । इनमें कृष्ण से कापोत अशुभ लेश्याएँ हैं और तेज से शुक्ल तक शुभ लेश्याएं हैं । इसी प्रकार मूलाधार, स्वाधिष्ठान तथा नाभि यह तीनों अशुभ चक्र हैं | इसके विपरीत हृदय, कण्ठ और मस्तिष्क/आज्ञा चक्र- ये शुभ चक्र हैं ।
मनुष्य जब 'अशुभ' को छोड़ता है तो 'शुभ' को पाता है । मगर यह अंत नहीं है । यह मंजिल से साक्षात्कार नहीं है । अशुभ छूट जाए, फिर शुभ को भी छोड़ना है । अंधकार की यात्रा से मुक्ति पाने के लिए शुक्ल पक्ष की यात्रा करनी होगी । मगर बाद में इससे भी मुक्त होना होगा । क्योंकि वहाँ मन, वचन आदि की प्रवृत्ति अभी शेष है । हमें तो रंगों के पार होना है । चाहे वे बैंगनी हों, नीले हों, काले हों या अन्य कोई । पृथ्वी का रंग मटमैला है । यही मूलाधार का भी रंग है और यही कृष्ण लेश्या का | व्यक्ति जब शुक्ल लेश्या का ध्यान करता है, तो वहाँ केवल श्वेत रंग रह जाता है । अन्य सभी रंग उसमें समा जाते हैं । सहस्रार का रंग हरा होता है । कभी अनुभव करना चाहो तो कर सकते हो ।
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