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तुर्या : भेद-विज्ञान की पराकाष्ठा
२२१ संयोजन न किया जाये, तब तक वह हवाई झोंकों के साथ घर-घाट के बीच झख मारती रहती है । जिन्दगी ऐसे ही तो तमाम होती है । जिन्दगी पूरी बीत जाती है । सार क्या हाथ लगता है झख मारने के सिवा !
चित्त की अनेकता का अर्थ है, वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों की बहुलता । वृत्ति-बहुलता ही चित्त का बिखराव है । चित्त हमारे शरीर की सबसे सूक्ष्मतम किन्तु प्रबल ऊर्जा है । 'जाति-स्मरण' का अर्थ है चित्त का बारिकी से वाचन । ऊर्जा बिखराव के लिए नहीं होती, उपयोग और संयोजन के लिए होती है । जो चित्त आज भटक रहा है, यदि उसे सम्यक् दिशा में मोड़ दिया जाये, तो चित्त की प्रखरता हमारे जीवन के ऊर्ध्वारोहण में सर्वाधिक सहकारी बन सकती है ।
योग का अर्थ और उद्देश्य चित्त के बिखराव को रोकना है । चित्त के समीकरण का उपनाम ही योग है । हमें ध्यान-योग से प्रेम करना चाहिए, क्योंकि हम ऊर्जा के संवाहक हैं । हमें ऊर्जा का स्वामी होना है, उसका गुलाम नहीं । चित्त हमारा अंग है । हम चित्त के आश्रित नहीं । यही तो व्यक्ति की परतंत्रता है कि वह 'पराश्रित' के आश्रित हो गया । स्वप्न की उड़ानों के जरिये नींद की खुमारियों में चित्त आठों पहर व्यस्त है और मनुष्य है ऐसा, जिसने अपनी सम्पूर्ण समग्रता उसी की पिछलग्गू बना दी है । यह प्रश्न हर एक के लिए चिन्तनीय है कि मनुष्य चित्त का अनुयायी बने या चित्त मनुष्य का ।
सम्बोधि का मतलब है, चित्त का बोध प्राप्त करना । आत्म-ज्ञान के लिए चित्त का बोध अनिवार्य पहलू है । चित्त को एकाग्र/एकीकृत किया जाना चाहिए । एकाग्रता से ही भीतर की प्रखरता और तेजस्विता आत्मसात् होती है ।
सामान्य तौर पर चित्त की सम्बोधि के लिए हमें चित्त की दो वृत्तियों के प्रति सजग होना चाहिए- एक तो स्वप्न और दूसरी निद्रा । सजगता ही स्वप्न और निद्रा की बोधि एवं मुक्ति की आधार-शिला है । सजगता जागरण है और जागरण चित्त की एक वृत्ति है । मनुष्य जितना अधिक सोया, उतना ही श्मशान में रहा । सपनों में जितनी रातें बितायीं, उसने
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