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षट् चक्रों में निर्भय विचरण
२१६ भी उसी के अनुरूप होता है । आभामंडल नीला हो सकता है तो पीला भी । रात सोकर जब सुबह उठो तो अपने शरीर के इर्द-गिर्द ध्यानपूर्वक देखना, लगेगा कालिमा, मटमैलापन धुंए जैसा, अंधेरे जैसा । जो व्यक्ति अपने लेश्या केन्द्रों और भाव-केन्द्रों पर जितना जागरूक होगा, उसे अपने आभा-मंडल के रंग उतने साफ नजर आएंगे । तुम्हारे आमा-मंडल को तुम्ही देख पाओगे, किन्तु जहाँ आमा-मंडल अपनी उज्ज्वलताओं को पराकाष्ठा से छू लेगा, वहाँ वह दूसरों की नजरों में भी आ जाएगा ।
सन्तों के चित्रों को तो आपने देखा ही है । क्या कभी सोचा है उनके सिर के पृष्ठ भाग में दिखाई देने वाला गोलाकार क्या है ? वास्तव में कुण्डलिनी के, चैतन्य-शक्ति के परम ऊर्धारोहण की दास्तान है ।
हमें चलना है रंगों की उज्ज्वलता में । फिर रंगों के पार, वीतरागता में, अन्तर की शान्त झील में । हर जीवन तीनों लोकों का प्रतिबिम्ब है । स्वयं के आइने में निहार सकते हो, लोक की सम्भावना को । नाभि के नीचे का भाग अधो-लोक है । नाभि का स्थान मध्य-लोक है और ऊर्ध्व-लोक नाभि से ऊपर है । मध्य लोक में हम जीवित हैं । यात्रा करें ऊर्ध्व लोक की । अधर्म से पार चलें, धर्म के मार्ग पर; किन्तु जहाँ आत्म-पूर्णता की अनुभूति में डूबोगे, वहाँ जीवन-मुक्ति की बेला में धर्म भी छूट जाएगा । आखिर धर्म भी एक मार्ग है और जीवन-मुक्ति मार्ग की मंजिल है | शुभ से अशुभ को चीरो, मगर शुद्धत्व की भूमिका में अशुभ तो छूटेगा ही, शुभ भी अपने आप पीछे हट जाएगा । ध्यान ध्येय नहीं है; ध्येय का प्रवेश-द्वार है । ध्येय के महल में जब प्रवेश करोगे तो ध्यान भी अपने आप स्वयं से अलग हो जाएगा । यात्रा शुरू करें, स्वयं के द्वारा स्वयं में, स्वयं के ऊर्ध्व लोक में, जीवन की विराटता में ।
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