________________
तुर्या : भेद-विज्ञान की पराकाष्ठा
महावीर का वक्तव्य है कि मनुष्य अनेक चित्तवान है । चित्त की अनेकता को जानना महावीर की अत्यन्त मनोवैज्ञानिक खोज है । चित्त कोषागार है । संस्कारों और स्मृतियों की पर्त-दर-पर्त जमी है वहाँ । विश्व के ग्लोब जैसा ही ग्लोब है उसका । संसार एक है, परन्तु देश अनेक हैं । विश्व के नक्शे में इंच-इंच पर अलग-अलग राष्ट्रों का गवाह देने वाली रेखाएँ खींची हुई हैं । चित्त का नक्शा, विश्व के नक्शे से भी अधिक विस्तृत है । वर्तमान ही नहीं, अतीत का समूचा इतिहास चित्त के पटल पर दबा - उभरा रहता है ।
चित्त का अपना समाज और संसार होता है । इसकी अपनी सन्तानें और पाठशालाएँ होती हैं । न्यायालय और कारागृह भी इसके निजी होते हैं । यदि जन्मान्तर के अतीत को न भी उठाया जाये, सिर्फ वर्तमान के ही पन्ने पलटे जायें, तब भी चित्त के विश्वकोश की मोटाई को चुनौती नहीं दी जा सकती ।
'चित्त' तो पुस्तकालय है । पुस्तकालय तो एक है, पर दराजें कई । एक दराज में सैकड़ों पुस्तकें और एक पुस्तक में सैकड़ों पन्ने । पुस्तकें दराजों में दर्ज हैं और दराजें पुस्तकालय में । जीवन और परिवेश के ढेरों सूत्र इसी तरीके से चित्त से जुड़े हुए रहते हैं । जितनों से मिले, जितनों को जाना, चित्त के उतने ही परमाणु सक्रिय हुए। परमाणुओं का क्या, वे संख्यातीत / असंख्य हैं ।
मनुष्य का चित्त विकीर्ण है । रेगिस्तान के टीलों की तरह है वह । ऊपर से बड़ा सुहावना, पर हरितिमा के नाम पर बिल्कुल फस्स । रेगिस्तान की रेती विकीर्ण ही हुआ करती है । जब तक उसका सही
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org