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षट् चक्रों में निर्भय विचरण
२१५ करें । व्यक्ति जब चौथे चक्र में प्रवेश करता है तो उसका तीसरा नेत्र खुलता है । योग में जिसे तीसरा नेत्र कहा है, उसे शिव-नेत्र भी कहा गया है । यहां महावीर की भाषा में शुक्ल लेश्या का उद्घाटन होता है । व्यक्ति ज्यों-ज्यों अपने आपको ऊपर चढ़ाने का प्रयास करता है, उसकी अनुभूति गहरी होती चली जाती है और उसकी निर्मलता भी बढ़ती चली जाती है । इसके बाद मनुष्य सफलता के सोपान चढ़ता चला जाता है।
__ प्रत्येक व्यक्ति के पास एक ऐसी शक्ति है, जो या तो बाहर निकलेगी या भीतर की ओर ऊर्ध्वारोहण करेगी । एक बार इसे ऊर्ध्वारोहण कर लेने दें, चेतना को ऊपर चढ़ जाने दें । इसे आप इस तरह समझें । पानी का स्वभाव है बहना । नीचे की ओर लुढ़कना । उसे कितना भी ऊपर चढ़ा लीजिए, आखिर तो वह नीचे ही आएगा । उसकी प्रकृति ही ऐसी है, किन्तु यदि उसे ऊपर ले जाकर टंकी में बंद कर दें, तो वह रुक जाएगा । इसी प्रकार तीन चक्रों के बाद हम अपने भीतर की ऊर्जा को, जल-सरिता को चौथे चक्र में प्रवेश करा दें तो वह ऊर्जा ऊपर जाने का अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त कर लेगी । इसी का नाम है : चेतना-का-ऊर्ध्वारोहण, और इसी का नाम है चैतन्य-का-विचरण ।
महावीर ने अपने जीवन में कुछ बोध-कथाएं कही हैं । महावीर तो मौन के अभ्यासी थे, भीतर का आनन्द वे चुप रहकर ही महसूस करते थे । वे चुप भी खूब रहे तो बोले भी खूब | उन्होंने साधु को कितना अच्छा नाम दिया- 'मुनि' । इसका अर्थ होता है 'मौन' । मन से मौन, वही 'मुनि' । तो महावीर ने एक बार बोधकथा कही- एक बार छह पथिक एक जंगल से गुजर रहे थे । आप छहों चक्रों को इस रूप में भी समझिएगा । चलते-चलते पथिक थक गए । एकाएक उन्हें एक बड़ा-सा पेड़ नजर आया जिस पर आम लगे थे । उन्हें भूख लगी ही थी । एक पथिक ने पेड़ देखा तो उसने मन में सोचा 'बड़ी जोर की भूख लगी है । मैं इस पेड़ को जड़ से उखाड़ दूंगा ताकि भर पेट आम खा सकुँ ।' दूसरे ने सोचा- इसके तने काट डालूं, तीसरे ने सोचा- इसकी शाखाएं काट दूं, चौथे ने उस पेड़ की उपशाखा काटने की सोची । पांचवें ने सोचा कि मैं इस पेड़ के फल तोड़कर खा लूंगा । छठा पथिक इनसे
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