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चलें, मन-के-पार पिता ने कहा 'इसमें दुविधा की क्या बात है, दांतों का डाक्टर बनो । दांत बत्तीस होते हैं, इसलिए इसमें ज्यादा फायदा होता है । कान तो दो ही होते हैं।'
कल्पना करें हम, कि हम किस तरह के कीड़े-मकोड़े हैं । आदमी आदमी बन जाए, इसी में उसकी पूर्णता है । मनुष्य यह सोचे कि आदमी मरेगा और उसके बाद कर्मों के हिसाब से उसकी दुर्गति होगी तो वह गलत सोच रहा है । मेरी समझ में तो ऐसे हम अपने वर्तमान जीवन का सही उपयोग नहीं कर पाएंगे । हमने यह मान लिया कि बन्दर से आदमी पैदा होता है और आदमी ही पैदा हो गया तो शेष क्या रहा ? पैदा करना है
आदमी को भीतर से भी और बाहर से भी । जिन्दगी में जहाँ देहरी का दिया जल जाता है, 'बाहर' व 'भीतर' दोनों पक्ष उज्ज्वल हो जाते हैं, वहीं मनुष्यत्व-का-आविष्कार होता है ।
साधना, ध्यान और समाधि का सारा सम्बन्ध व्यक्ति के अंतर्मन से जुड़ा हुआ है । मनुष्य का सारा नाता भीतर से जुड़ा होता है । यही कारण है कि मनुष्य भीतर से पाप करता चला जाता है । शरीर द्वारा जो क्रिया होती है, गलत कार्य होते हैं, वे पाप नहीं अपराध होते हैं और मन के द्वारा गलत सोची जाने वाली बातें पाप होती हैं । पाप और अपराध में भारी फर्क है । पाप का सम्बन्ध मन से है और अपराध का शरीर से । मैंने मन में सोचा कि आपके थप्पड़ लगाऊं । लगाया तो नहीं, मगर सोचा, इसलिए यह पाप हो गया और यदि मैं आपके थप्पड़ मार दूं तो यहाँ अपराध हो गया । मन में अच्छा सोचना पुण्य है और बुरा सोचना पाप है । शरीर द्वारा अच्छा कर्म तो सत्कर्म है और बुरा कर्म अपराध है । इसीलिए कानून पाप की नहीं, अपराध की सजा देता है । धर्म, ध्यान ये सब पाप की सजा देते हैं। इनके लिए अपराध का कोई मूल्य नहीं है ।
भगवान ने भीतर के जगत से जुड़ने के लिए भीतर के चक्रों का बयान किया । ये बहुत ही बारीक हैं ।
____ हम अन्दर की वृत्तियों को निर्मल से निर्मलतम करते चले जाएं तो कुण्डलिनी का ऊवारोहण अनायास ही हो जाएगा, क्योंकि कुण्डलिनी और
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