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षट् चक्रों में निर्भय विचरण
२११ जिन्दगी में दुर्गति होगी । अच्छे और बुरे कर्म के प्रतिफल स्वरूप सद्गति
और दुर्गति इसी जन्म में हो जाती है । मनुष्य अपने आपको टटोले तो वह जान जाएगा कि वह कीड़ा-मकोड़ा है या बन्दर, आदमी है या देव । मरने के बाद बन्दर होना अलग बात है । मुझे तो लगता है कि आदमी अभी तो बन्दर है।
डार्विन ने कहा, बन्दर से आदमी पैदा हुआ । अरे ! आदमी पैदा कहाँ हुआ, अभी तो काफी साधना है, आदमी बनने के लिए । पैदा तो वह बन्दर के रूप में ही हुआ है । व्यक्ति जब व्यक्ति बन जाता है तो उसके करने के लिए कुछ बचता ही नहीं है । आप जरा साक्षी-भाव से, द्रष्टा-भाव से अपने केन्द्र-भाव में सारी जागरूकता को केन्द्रित कीजिए । आपको लगेगा कि मेरा अंतर्मन तो अभी बन्दर ही है । आदमी तो अभी भी पैदा नहीं हुआ है । आदमी के रूप में बन्दर जिन्दा बैठा है । मनुष्य जब स्वयं के भीतर देखेगा तो पाएगा कि मनुष्य 'मनुष्य' नहीं बन पाया, अभी तो बन्दर ही है । बन्दर रूपी यह मन कभी इस पेड़ पर, तो कभी उस पेड़ पर, कभी नीचे तो कभी शिखर पर आ जाता है, मगर उसकी उछल-कूद, तड़क-भड़क जारी है ।
स्वर्ग-नरक मनोविज्ञान है, मन की देन है । मन के रहते स्वर्ग-नरक के विकल्प उभरते रहेंगे । मोक्ष मन के पार है, स्वर्ग-नरक के पार है । जीवन ही स्वर्ग-नरक है । मोक्ष पा लेना जीवन की समग्र सफलता है । स्वर्ग और नरक की सम्भावना जीवन से अतिरिक्त नहीं है ।
यह मत सोचिये कि मरने के बाद आप कीड़े-मकोड़े बनेंगे । जो व्यक्ति माया-मोह में फंसा हुआ है, वह अभी भी कीड़ा-मकोड़ा ही है । जिस प्रकार कीड़ा कीचड़ में पैदा होता है और वहीं जीवन पूरा कर दम तोड़ देता है, माया-मोह में फंसा आदमी भी उसी कीड़े के समान है । वह आदमी बन ही नहीं पाया है । इससे ज्यादा दुर्गति और नारकीय अवस्था क्या होगी ?
एक पुत्र ने पिता से पूछा 'मैं डाक्टरी की पढ़ाई करना चाहता हूँ । मुझे सलाह दीजिए कि मैं कानों का डाक्टर बनूं या दांतों का ?
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