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ऊर्जा का समीकरण
७१ तक, अन्त तक फैलाना जरूर, मगर पहले भीतर को पहचान लेना । जब तक भीतर को नहीं पहचाना, तब तक राम की पहचान क्या खाक होगी । पहचानने चले हो राम को, परमात्मा को । अरे ! अपने आपको तो पहचान लो । मगर ऐसा नहीं हो रहा है ।
आदमी गधे पर सवार है और दौड़ रहा है । रास्ते में किसी ने पूछ लिया भाई, कहाँ जा रहे हो ? वह बोला- 'गधे को ढूंढ़ने जा रहा हूँ ।' राहगीर हँसा, बोला- भले आदमी, गधे पर तो तुम बैठे हो । अरे ! यह तो ध्यान ही नहीं आया । जिस पर बैठे हो, उसी की तलाश में दौड़ रहे हो । वह सम्पदा तो तुम्हारे पास ही है, उसे ढूंढ़ने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है ।
एक दिन, ध्यान-साधना में रुचि रखने वाले एक सज्जन मेरे पास आए । बोले- 'मैं ईश्वर को खोज रहा हूँ ।' मुझे उनकी बात सुनकर हँसी आई- 'ईश्वर को खोज रहे हो, ईश्वर खोया ही कब था, जो खोज रहे हो ।' जो खोया हो, उसे तो खोजा भी जा सकता है । जब कुछ खोया ही नहीं तो खोजना क्या ? उसे (ईश्वर को) खोजना नहीं है । वह तो तुम्हारे पास बैठा है और तुम्हारी नादानी पर हँस रहा है । उसे खोजने की नहीं, तुम्हें सिर्फ अपनी आँख खोलने की जरूरत है ।
दिया तो जला हुआ है, न उसमें तेल है, न बाती, फिर भी जल रहा है । 'अप्प दीवो भव ।' तुम ऐसे ही दीपक हो, आँधी उसे बुझा नहीं सकती । पहचानो उस दीपक को । उसकी लौ, रोशनी बाहर नहीं आ रही है । जिन पर्दो ने उस रोशनी को ढक दिया है, उन्हें हटाने की जरूरत है । दिया बुझा ही कब था, वह तो जल रहा है युगों-युगों से । वह बुझ गया तो राम नाम सत्त है । भीतर का दिया तो कभी नहीं बुझता, वह तो सनातन है । हमेशा से जलता रहा है, जल रहा है
और जलता रहेगा | आदमी कितना भी पुण्यात्मा से पुण्यात्मा और पापी से पापी बन जाए, चाहे मृत्यु की गोद में जाओ या जीवन की क्रोड़ में, यह शाश्वत दिया तो जलता रहेगा । उसे बुझाने का कोई तरीका भी नहीं है । कितना भी प्रलय हो जाए, वह दिया बुझने वाला नहीं है । जरूरत है सिर्फ आँखें खोलने की :
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