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सार्वभौम है ॐ
१४६ 'ओम्' केवल शब्द नहीं है । शब्द-के-रूप में उसे लिखा भी नहीं जाता । 'ओम' तो चित्र है । निःशब्द की यात्रा में शब्द छूट जाता है और चित्र उभर आता है । इसलिए हम 'ओम्' न लिख कर 'ॐ' लिखते हैं । यह 'ॐ' लिखने में अभ्यास ऐसा हो गया है कि वह हमें चित्र के बजाय शब्द ही लगने लग गया है और किसी चित्र को बनाने के लिए तूलिका चाहिए पर 'ॐ' तो कथनी और लेखनी के साथ इतना जुड़ गया है कि उसका चित्र कलम से ही पूरा हो जाता है । एक बच्चा भी चित्र बना सकता है 'ॐ' का । जो 'अ' लिख सकता है, वह 'ॐ' भी लिख सकता है । 'ॐ' चित्र-रूप में रहा । जैसलमेर के प्राच्य भण्डारों में कई चित्र 'ॐ' के विभिन्न रूपों में उपलब्ध हैं ।
'ॐ' शब्द-रूप में भी रहा । 'ॐ' का इस्लाम से भी सम्बन्ध है । 'ओम्' का 'अ' 'अल्लाह' बन गया और 'ॐ' के सिर पर दर्शाया जाने वाला रूप इस्लाम का अर्धचन्द्र बन गया । इस्लाम में आधे चाँद की बड़ी इबादत और इज्जत है । आधा चाँद 'ॐ' का ऊपर का हिस्सा है । 'ॐ' इतना घिस गया कि उसका अर्धचन्द्र-रूप ही बच पाया । चाँद का आधा रूप इस्लाम का धर्म-प्रतीक है । इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि जैन-धर्म में तो निर्वाणधाम का रूप ही अर्धचन्द्राकार माना है । यहाँ इसे सिद्धशिला कहा जाता है । सिद्धशिला संसार से ऊपर है । 'ॐ' पर अंकित किया जाने वाला चन्द्राकार 'ॐ' का ऊर्ध्व-प्रतिष्ठित रूप है । अर्धचन्द्र तो सिद्धशिला का द्योतक है और उसके अन्दर दिया जाने वाला बिन्दु सिद्ध एवं मुक्त आत्माओं का प्रतीक है ।
"गिरह हमारा सुन्न में अनहद में विश्राम' । '0' शून्य ही सिद्धत्व का घर है । बिना आधार के भी वह घर टिका है । सिद्धशिला को लोकाकाश के ऊपरी और अखिरी छोर पर मानना न केवल शून्य में सिद्धत्व की अभिव्यक्ति है, अपितु अन्तरिक्ष और अन्तरिक्ष-के-पार अवस्थिति को स्वीकृति भी है ।।
घर बने शून्य में और विश्राम हो अनहद में, ओंकारेश्वर में । ___ततः प्रत्यक्चेतना अधिगमः अपि अन्तराय-अभावश्च'- पंतजली 'ॐ' को ही वह प्रबल साधना मानते हैं जिससे अन्तराय टूटते हैं और चेतना का
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