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चलें, मन-के-पार
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जब मनोचेतना स्वयं से ही अभिमुख हो जाएगी, तो बुराइयों के प्रति रहने वाला भाव स्वयमेव समाप्त हो जाएगा । जब व्यक्ति भीतर से परम मौन हो तो महत्वाकांक्षा तो दूर, आकांक्षा भी मेंढक-मुहर टर्र-टर्र नहीं करेगी ।
ध्यान है आन्तरिक अनुशासन की व्यवस्था का निर्माण । मनुष्य की चेतना सारे जहान में भटकती है। उसे केन्द्र के सिंहासन पर बैठाना ही आंतरिक अनुशासन है । बिना आत्मानुशासन के अन्याय, अराजकता, हिंसा जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ जड़ से उखड़ नहीं सकतीं । ध्यान उसे प्रारम्भिक सोपानों पर ही एक भीतरी अनुशासन को जन्म देने लग जाता है । यदि आत्म- केन्द्रीकरण पूरा हो जाए तो वह वास्तव चैतन्यजगत् का महोत्सव है ।
शुरूआत में व्यक्ति को ध्यान करना पड़ता है, किन्तु बाद में ध्यान में होता है । करना प्रयास है, होना अनायास, सहजता है, प्रकृति है । कुछ होने के लिए कुछ करना पड़ता है । पहले पहल तो प्रयासपूर्वक कार चलानी सीखनी पड़ती है, किन्तु चलाने में अविरत रहने पर उसे सहजतः चलाया जा सकता है । ध्यान की सिद्धि भी ऐसा ही प्रयास है । जितना इससे जुड़ेंगे, इसकी प्रगाढ़ता उतनी ही गहरी होती जाएगी । फिर तो ऐसे लगेगा जैसे ध्यान कोई योग-साधना नहीं, अपितु जीवन का अंग है, मेरी परछाई - जैसा है ।
चूंकि ध्यान का सम्बन्ध जीवन से है, इसलिए यह समय-निरपेक्ष है। समय की कोई पाबंदी इसके लिए नहीं है । फिर भी सुबह-शाम दोनों समय ध्यान कर लेना चाहिये । सूर्योदय का समय जीवन की पंखुरियों को ऊर्जा - पूरित करने में सहयोग देता है । हर सूर्योदय एक नया शैशव है । सुबह में किया जाने वाला ध्यान स्वयं की सोयी ऊर्जा को जगाने और नई ऊर्जा को एकत्रित करने के लिए है । जबकि संध्याकाल में किया जाने वाला ध्यान बिखरी ऊर्जा के सम्पादन के लिए है ।
सूर्य प्रकाश का प्रतिनिधि है । ऊर्जा की समग्रता के साथ वह उदित होता है । यह प्रकृति की ओर से मानव को जागरण का आह्वान है । योगासन की क्रिया-प्रक्रियाओं में सूर्य-स्नान का इसीलिए महत्त्व है । सूर्य की उगती पारदर्शी किरणों को अपने बदन पर पड़ने देना ही
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