Book Title: Chale Man ke Par
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 209
________________ २०० चलें, मन-के-पार अपने आप में एक ध्यान-साधना है। यह वाणी-संयम का प्रहरी है. शक्ति-संचय करने वाला भण्डार है, सत्य को अक्षुण्ण बनाए रखने वाला मन्त्र है । जिसने मन, वचन और काया के द्वार बन्द कर लिए हैं, वही सत्य का पारदर्शी और मेधावी साधक है । उसे इन द्वारों पर अप्रमत्त चौकसी करनी होती है । उसकी आँखों की पुतलियाँ अन्तर्जगत के प्रवेश-द्वार पर टिकी रहती हैं । बहिर्जगत के अतिथि इसी द्वार से प्रवेश करते हैं। अयोग्य/अनचाहे अतिथि द्वार खटखटाते जरूर हैं, किन्तु वह तमाम दस्तकों के उत्तर नहीं देता, मात्र सच्चाई की दस्तक सुनता है । वह उन्हीं लोगों की अगवानी करता है, जिससे उसके अन्तर्-जगत का सम्मान और गौरव-वर्धन हो । समाधि भीतर की अलमस्ती है । चेहरे पर दिखाई देने वाली चैतन्य-की-प्रसन्नता में इसे निहारा जा सकता है । यह किसी स्थान-विशेष की महलनुमा सोनैया संरचना नहीं है, न ही कहीं का ठाणापति/स्थानापति होना है, वरन् अन्तरंग की खुली आँखों में अनोखे आनन्द-की-खुमार है । वह हार में भी मुस्कुराहट है, माटी में भी महल की जमावट है । समाधि शून्य में विराट होने की पहल है । वासना-भरी प्यासी आँखों में शलाई घोंपने से समाधि रोशन नहीं होती, अपितु भीतर से सियासी आसमान की सारी बदलियाँ और धुंध हटने के बाद किरण बनकर उभरती है । समाधि तो स्थिति है । वहाँ वृत्ति कहाँ ! प्रवृत्ति की सम्भावना से नकारा नहीं जा सकता । वृत्ति का सम्बन्ध तो चित्त के साथ है, जबकि समाधि का दर्शन चित्त के पर्दे को फाड़ देने के बाद होता है । चेतना का विहार तो चित्त के हर विकल्प के पार है । समाधि में जीने वाला सौ फीसदी अ-चित्त होता है, मगर अचेतन नहीं । चेतना तो वहाँ हरी-भरी रहती है । चेतना की हर सम्भावना समाधि की सन्धि से प्रवर्तित होती है । उसे यह स्मरण नहीं करना पड़ता कि मैं कौन हूँ । उसके तो सारे प्रश्न डूब जाते हैं । जो होता है, वह मात्र उत्तरों-के-पदचिन्हों का अनुसरण होता है । 000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258