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चलें, मन-के-पार
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करता है । इसलिए जो मन के स्वभाव में जीता है, वह वैश्य बना रहता है, भले ही वह किसी भी कुल में जन्मा हो । असल में तो वह वैश्य ही है । मन की मांग शरीर की मांग से ज्यादा होती है । मन का पेट ही नहीं होता, इसलिए वह कभी भरता भी नहीं है । रोटी कपड़े की चाह की भी एक सीमा है, मगर मन की नीयत कभी नहीं भरती । मन असीमित है । मन की सीमा हर सागर के पार है । मन के कर्मयोग के सामने ईश्वर भी बौना नजर आता है । मन की गति जैसी ईश्वर की भी गति नहीं होगी । मन की तृष्णा इतनी विराट है कि ईश्वर भी उसके सामने बौना नजर आने लगता है । कितना भी मिल जाए, फिर भी मन कहेगा 'और' । मन की परिभाषा भी यही है
सुवण्ण-रूपस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ।
यदि मनुष्य को सोने-चाँदी के कैलाश पर्वत भी मिल जाएं तो भी वह तृष्णा के लोभ में फंसे आदमी के लिए कुछ भी नहीं हैं । इसलिए जो व्यक्ति मन में जीता है, वह वैश्य है ।
अपने कांटे को एक स्थान पर टिकाओ । यह ऐसा रेडियो है जिसमें एक ही स्थान पर संगीत सुनाई देता है । अगर कांटा इधर-उधर घूमेगा तो क्या कोई संगीत सुन पाओगे ? साधना की पहली शुरूआत यहीं से होती है । मन को एक जगह केन्द्रित करो और कांटे को एक जगह टिकाओ, ताकि कोई संगीत सुनाई दे सके । किसी बाँसुरी या वीणा के स्वर सुनाई दें । रेडियो पर कांटा विविध भारती स्टेशन के बिन्दु पर लगा है। डेढ़ से ढाई बजे तक गीत आ रहे हैं । उसके बाद दूसरा कार्यक्रम आया । आखिर देर रात उस बिन्दु पर आवाज बंद हो गई । इसी प्रकार समय समाप्त होने पर आपको भी लगेगा कि समय-सीमा समाप्त होने पर आपने एक अनिर्वचनीय शांति के क्षेत्र में प्रवेश किया, महाशून्य में प्रवेश किया । वहाँ विचार समाप्त हो जाते हैं, सिर्फ रह जाती है शांति । वहाँ होता है महाशून्य का अवतार । ऐसे में कुछ भी नहीं रहता और सब कुछ 'मिलना' शुरू होता है ।
उदयपुर की बात है । एक पत्रकार मेरे पास आया करता था ।
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