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चलें, मन-के-पार अपनी आत्मकथा पढ़ोगे तो अपने सारे निरर्थक विचार खो जाएँगे और खुद पर ही गुस्सा आएगा । आदमी जब अपने आप पर क्रोध कर लेता है तभी क्षमा-की-धारा पैदा होती है । इसके अभाव में सारी क्षमाएँ
औपचारिकता ही होती हैं । क्षमा वहीं असली स्रोत बनकर उभरती है, जहाँ व्यक्ति अपने पर क्रोध करता है । व्यक्ति अपनी लघुता को स्वीकार कर लेता है, तभी निर्मल होता चला जाता है । मन में आखिर कितने विचार आते हैं । कोई सैकड़ों तरह के विचार तो नहीं आते । ध्यान करने बैठो तो- पांच, दस, बीस तरह के विचार आएँगे । दरअसल भीतर का रास्ता है ना, वह विचार-का-गलियारा है । उसका रास्ता तय है । विचार भी उन तयशुदा रास्तों पर चलता है । आपने देखा होगा समीपवर्ती गांव से कोई किसान अपनी बैलगाड़ी लेकर शहर की ओर निकलता है, तो सड़क पर आकर बैल की लगाम ढीली छोड़ देता है । बैल अपने तयशुदा रास्ते पर चलता चला जाता है । मन भी ऐसा ही है । घर से दुकान गया, दुकान से बैंक गया, बैंक से फिर दुकान, फिर मंदिर चला गया । मंदिर से वापस घर चला आया । बस गिने-चुने तय ठिकानों पर गया
और लौट आया । उसे जाने दो और तुम दृष्टा-भाव से, साक्षी-भाव से, उसे देखने-परखने का प्रयत्न करो । ऐसा करके मन की तरंगें अपने आप एकाग्र होने लगेंगी । वहाँ मन के बाद जो चित्त का केन्द्र है, वह अपनी परतों को उभारता चला जाएगा ।
जरा गौर करिएगा, मन और चित्त में अन्तर है । मन वह है जो हमेशा भविष्य के द्वार पर दस्तक देता है और चित्त वह है जो अतीत के द्वार पर अपने पाँव रखे रहता है । इसलिए मन कभी अतीत में नहीं जाता और चित्त कभी भविष्य में नहीं झांकता । वह अतीत में ही जीता है । पूर्व जन्म का स्मरण व्यक्ति को चित्त द्वारा ही होता है । मन तो सिर्फ एक तरंग है, जो वर्तमान में जीता है और भविष्य की सोचता रहता है । वह परमाणु की ढेरी है । इसके विपरीत चित्त पर परतें जमी हैं । चित्त संस्कार है, मान्यताएँ हैं । पूर्व मान्यताओं पर रेत (समय) की परतें जमती चली जाती हैं । इन परतों को जैसे-जैसे उतारते चले जाएँगे स्वयं को संस्कार शून्य और मान्यता-शून्य करते चले जाएँगे, इसके साथ-साथ ही चित्त से मुक्ति मिलती चली जाएगी । प्याज के छिलके उतारते चले जाओ,
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