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चलें, मन-के-पार अर्थात् सम्यक् ध्यान । सुबह/शक्ति कुण्डलिनी से चेतना-के-ऊर्ध्वारोहण-की-यात्रा की शुरूआत है । सन्ध्या/शान्ति उस यात्रा-यज्ञ की पूर्णाहुति है । शक्ति-जागरण के लिए पद्मासन, सिद्धासन, प्राणायाम भी सहायक-सलाहकार हैं और शान्ति-अभ्युदय के लिए शवासन, सुखासन भी अच्छे साझेदार हैं ।
आसनपूर्वक ध्यान स्वास्थ्य लाभ की पहल है । ध्यान के लिए शरीर का स्वस्थ रहना अपरिहार्य है । आसन इसीलिए किये जाते हैं । आसन का सम्बन्ध ध्यान से नहीं, अपितु शरीर से है । आसन एक तरह से व्यायाम के लिए हैं । भूख लगे, जीमा हुआ पचे, शरीर-शुद्धि हो, यही आसन की अन्तर्कथा है । ध्यान शरीर-शुद्धि नहीं, बल्कि चित्त-शुद्धि है । ध्यान के लिए तो वही आसन सर्वोपरि है, जिस पर हम दो-तीन घंटे जमकर बैठ सकें ।
स्वस्थ मन के मंच पर अध्यात्म के आसन की बिछावट होती है। आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए मन की निरोगता आवश्यक है और मन की निरोगता के लिए कषायों-का-उपवास उपादेय है । विषयों-से-स्वयं-कीनिवृत्ति ही उपवास का सूत्रपात है । क्षमा, नम्रता और संतोष के द्वारा मन को स्वास्थ्य-लाभ प्रदान किया जा सकता है ।
समाधि स्वास्थ्य का विपक्ष नहीं है । यह शरीर को एकत्रित ऊर्जा देकर स्वास्थ्य-लाभ की दिशा में सहायिका बनती है । सांसों पर संयम करना, चित्त के बिखराव को रोकना और इन्द्रियों की अनर्गलता पर एड़ी देना- यही तो समाधि के खास सेतु हैं और आयु-वर्धन तथा जीवन-पोषण के लिए भी यही मजबूत सहारे हैं।
___ आसन शरीर का एकान्त कर्मयोग है । यह शरीर को श्रम का अभ्यासी बनाये रखने का दत्तचित्र उपक्रम है । जो तन्मयतापूर्वक काम करता है, वह कई तरह के साधनों को साध लेता है । अध्यात्म का अर्थ यह नहीं होता है कि सब काम छोड़-छाड़ दो । काम से जी-चुराना अध्यात्म नहीं है, अपितु काम को तन्मयता एवं जागरूकतापूर्वक करना अध्यात्म-की-जीवन्त-अनुमोदना है । निष्क्रियता अध्यात्म की परिचय-पुस्तिका बनी भी कब ! अध्यात्म का प्रवेश-द्वार तो अप्रमत्तता है । प्रमाद छोड़ कर दिलोजान से काम करते रहना इस कर्म-भूमि का महान् 'उद्योग' है ।
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