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चलें, मन के-पार तौर पर साधना की मंजिल मानते हैं । किन्तु वह मंजिल नहीं है । समाधि तो रास्तों-का-रास्ता है, समाधानों-का-समाधान है । मंजिल तो कैवल्य है, अमृत-पद है । समाधि शान्त मनःस्थिति का नाम है । मन की उथल-पुथल असमाधि है और मन के सरोवर का शान्त/निस्तरंग होना समाधि है । चित्त का साफ-सुथरा व स्वच्छ शीशे जैसा होना समाधि ही है । समाधि में प्रवेश करना हो तो पहले स्मृति से गुजरो, ध्यान में बैठ जाओ, प्रभु का स्मरण करो, उसकी सुरति के रंग में भीगो और फिर शान्त हो जाओ । यही तो वह प्रक्रिया है जो हमें स्मृति में और स्मृति से समाधि में ले जाती है ।
मगर साधना का यह जीवन्त-पथ प्रज्ञापूर्वक हो । यदि प्रज्ञा नहीं, तो श्रद्धा अन्ध-श्रद्धा बन सकती है, संकल्प भ्रान्ति के अन्धे गलियारे में ले जा सकता है, स्मृति जीवन से घृणा की ओर ले जा सकती है और समाधि बेहोशी बन सकती है । इसलिए जो कुछ हो, प्रज्ञापूर्वक हो । प्रज्ञा का अर्थ है बोध, होश | साधना के दूसरे चरण के कारण हम जोश में भी आ सकते हैं । मगर वह जोश किस काम का, जिसमें होश न हो ।
प्रज्ञा कोई पाण्डित्य नहीं है, वह तो विवेक-बुद्धि है, समझ की क्रान्ति है । प्रज्ञापूर्वक चलने वाला साधक न कभी फिसल सकता है और न कभी च्युत हो सकता है । वह जो करेगा, जितना करेगा, उससे वह परितुष्ट/परितृप्त ही होगा । जितना हुआ, उतना पाया । दीप जल रहे हैं डगर-डगर पर । जितना आगे बढ़ोगे रोशनी का पैमाना उतना ही बढ़ेगा । सिर्फ ज्योति-दर्शन ही नहीं होगा, मनुष्य स्वयं ज्योतिर्मय हो जायेगा । फिर तो वह ऐसा प्रकाश-पुंज होगा, जो युग-युगों तक ज्योतिर्मय रहेगा और दुनिया उसके प्रकाश में चलेगी । और भी लोगों को इस उज्ज्वल मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलेगी, उसी ज्योति के सहारे ।
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