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ध्यान : प्रकृति और प्रयोग
१८७ परम्परागत प्राप्त चीज स्वयं की उपज नहीं है और आरोपित चीज किसी के द्वारा जबरदस्ती थोपना है । फूल खिलता है सहजतया, नैसर्गिक । किसी तथ्य को जाने बिना विश्वास करना गलत है, तो अविश्वास करना भी अनुचित है । जिसे जाना नहीं उसके प्रति विश्वास न करना सामान्यतः बुद्धिमानी है, परन्तु खोज-खबर किये बना अविश्वास करना लापरवाही है ।
आखिर उस विश्वास की कीमत कितनी हो सकती है, जिसे बनाए और संजोए रखने में व्यक्ति को उम्र/आधी-उम्र कुर्बान करनी पड़ती है, किन्तु किसी एक ठोकर से व्यक्ति के सम्पूर्ण विश्वास को लकवा मार जाता है । हर इन्सान अपनी जिन्दगी में अनेकानेक लोगों के प्रति विश्वास करता है, मगर दुनिया में विश्वासघात अधिकतर वे ही करते हैं, जिनके प्रति विश्वास किया जाता है । इसलिए जीवन की आधारशिला हमें उस धरातल पर रखनी चाहिए, जिसकी जाँच-परख हम कर चुके हैं । ध्यान उसी धरातल-की-कसौटी है ।
ध्यान मृत्यु नहीं, जीवन की समग्रता में प्रवेश है । वह ऊर्जा को शून्य नहीं करता, वरन् उसे सौ गुना बढ़ाता है । सचमुच ध्यान सत्य के प्रति जिज्ञासा है, उसकी प्राप्ति के लिए तैयारी है, उसकी समग्रता में सराबोर रहने का सरोवर है । मैंने माना कि शरीर सत्य है, विचार भी सत्य है, मन भी सत्य है । इन सत्यों के हमें एड़ी-से-चोटी तक ढेर सारे अनुभव भी हैं । मगर इस नगर-का-मरघट इन सत्यों की सत्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है । वह एक नई जिज्ञासा और एक नई उत्सुकता जगाता है । वह कहता है वे सत्य तो उस सत्य के सामने निरे बौने हैं, जिसकी वजह से ये सत्य-रूप लग रहे हैं ।
मेरा निवेदन है उस सत्य के लिए जहाँ एक समग्रता विराजमान है, उस सत्य के लिए जो हर असत्य का मूक दर्शक है । उस यथार्थ तक दो कदम बढ़ाने को भी हमने चेष्टा न की, जो मन और तन की हर छिया-छी का गवाह बना रहा । आखिर वही तो जीवन की नींव है । उसके प्रति जगने वाली जिज्ञासा जितनी गहनतम होगी, अन्तर-की-प्यास उतनी ही भूमा रूप होती जाएगी । ध्यान का कार्य-क्षेत्र है उस प्यास की मशाल को निन्तर जलाये रखना, बुझने न देना । पकड़ जितनी गहरी होगी, कोशिशें
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