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सम्बोधि की आधारशिला है, अपितु मूल की ओर - वापसी भी है ।
चलें, मन-के-पार
बीज मूल का प्रतीक है और वृक्ष तूल का । जैसे बात का बतंगड़, बीज का बरगद होता है, वैसे ही मूल का तूल होता है । मूल का मतलब है केन्द्र और तूल का अर्थ है विस्तार । तूल का मूल की ओर मुड़ना प्रतिक्रमण है, जबकि मूल का तूल पकड़ना अतिक्रमण । अतिक्रमण के वातावरण में जीने वाले के लिए प्रतिक्रमण का प्रयोग / बोध जीवन के द्वार पर एक सही पहल है ।
बीज-बोध की घटना वास्तव में सम्बोधि है । सम्बोधि के मायने हैं बोध पाना, बुद्ध होना गौतम बुद्ध हुए । बोध पाया, इसलिए बुद्ध कहलाए । बुद्ध हर कोई हो सकता है । बोध की सम्यक् समग्रता ही बुद्ध-स्वरूप की बुनियाद है ।
बोध की पूर्व सीढ़ी है जिज्ञासा और बोध ही व्यक्ति को सत्य का सान्निध्य और सामीप्य देता है । बिना बोध के अबोध-दशा में किया गया विश्वास अन्ध-व्यवस्था का निर्माण है । वह विश्वास अविश्वास से बदतर है, जो बाहर से निष्ठा की प्रार्थना दुहराता है और भीतर गर्भ में संदेह को पालता है । बिना जिज्ञासा और बोध के किया गया विश्वास उपचारतः व्यक्ति को आस्तिक बना देता है, किन्तु नास्तिकता उसके अन्तःकरण में साकार रहती है । नास्तिकता और आस्तिकता के संदिग्ध कगार पर खड़ा आदमी 'अभव्य' है ।
इसलिए जिज्ञासा से बोध, बोध से विश्वास और विश्वास से उपलब्धियह क्रम जीवन में नूतन एवं सम्यक् पथ का प्रारम्भ है । सीधे विश्वास की बजाय जिज्ञासा एवं मनन का मार्ग उद्घाटित करना सत्य की ओर दो सही कदम बढ़ाना है । हर आविष्कार की प्रथम भूमिका एक मात्र जिज्ञासा रही है । बिना जिज्ञासा के मनुष्य भीतर से कोरा और अज्ञानी बना रहेगा ।
मैं जिज्ञासा का हिमायती हूँ । जिज्ञासा एवं बोध से होने वाला विश्वास श्रद्धा है । विश्वास बौद्धिक चीज है, जबकि श्रद्धा का सम्बन्ध हृदय से है । इसलिए सीधे विश्वास मत करो । क्योंकि विश्वास दो ही तरीकों से दिमाग में घर करता है- या तो परम्परागत या आरोपित ।
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