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समाधि के चरण : एकान्त, मौन और ध्यान
१८१ आफत की यह घड़ी भी बीत जाएगी । यह सोचकर राजा को नई शक्ति मिली और उसने अपनी बिखरी सैन्य-शक्ति को दुबारा एकत्र किया । पड़ौसी राजा पर हमला किया और अपना खोया राज-पाट पुनः हासिल किया ।
नए मुहूर्त में उत्सव के बीच राजा का राज्याभिषेक हो रहा था, तो उसे अचानक उस मंत्र की याद आई और वह उदास हो गया । उसका चेहरा मुरझा गया । दरबार में बैठे लोगों ने पूछा कि आपका राज्याभिषेक हो रहा है और आप हैं कि उदास खड़े हैं । इसका क्या रहस्य है ? राजा ने कहा कि यह जिन्दगी का एक ऐसा सूत्र है, ऐसा अनुभव है, जिसे मैंने वेदना-के-क्षणों में पहचाना है । सब कुछ बीत जाने वाला है । जो आज है वह कल नहीं रहेगा
और जो कल होगा वह परसों नहीं रहेगा । जीवन-मृत्यु सब बीत ही तो रहे हैं । कुछ भी रहने वाला नहीं है । कोई चीज टिकाऊ नहीं है । सिर्फ वह चीज है जिसे हम अस्तित्व का बोध कह सकते हैं । बोध इस बात का कि 'मैं' जीवन के बाद भी शाश्वत रहता है । यही तत्त्व मनुष्य को समाधि का अनुभव करवा सकता है ।
यह तत्त्व व्यक्ति को जीवन के आखिरी क्षणों में अनुभूति कराएगा कि कैसी भी घड़ी आ जाए, अपना संतुलन बनाए रखना । जीवन की धारा बहुत बारीक है, थोड़ा-सा संतुलन बिगड़ा कि धड़ाम से नीचे आ गिरोगे । कहते हैं कि साधु का जीवन तलवार की धार पर चलने जैसा है। मैं कहूंगा कि गृहस्थ का जीवन तलवार की धार पर चलने जैसा है । एक तरफ समाधि रखो और दूसरी तरफ तलवार की धार पर भी चलो । जीवन तलवार की धार पर चलने जैसा ही है ।
मैं तो यह कहूंगा कि भूल जाओ तलवार को, धार को भी । यह समझो कि नृत्य करना है । जिन्दगी तलवार की धार है और इस पर नृत्य करना है क्योंकि जिन्दगी नृत्य के लिए ही है । आनन्द के लिए है । तुम्हें रस्सी के सहारे चलकर अपनी जिन्दगी को पार लगाना है । समाधि इसी का नाम है । थोड़ा-सा संतुलन बिगड़ा कि असमाधि पैदा हो जाएगी ।
दूसरों को भूलना है एकान्त में आने के लिए; नीचे के जो तीन चक्र हैं उनसे छुट्टी पानी है । इसके बाद ही ऊपर के तीन चक्रों में प्रवेश
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