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चलें, मन-के-पार दूसरे वे होते हैं, जिन्हें यह प्रतिमा बनानी होती है । जो जन्मजात प्रतिभा-सम्पन्न होते हैं, वे वास्तव में पूर्व-जन्म के संस्कारों का परिणाम हैं । हरिभद्र ने उसे कुल-योगी कहा है और पंतजलि ने 'भवप्रत्यय' । भवप्रत्ययो विदेह-प्रकृतिलयानाम्' ।
"भव-प्रत्यय' वे लोग हैं, जो पूर्व जन्म में विदेह-अवस्था तक पहुँच चुके थे, किन्तु कैवल्य-प्राप्ति से पहले ही चल बसे । हालांकि पुरानी धर्म-किताबों में तो ऐसे लोगों के लिए 'योग-भ्रष्ट' कहा गया है, पर मैं इस गलती को न दोहराऊंगा । व्यक्ति योग-भ्रष्ट तो तब होता है, जब वह योग के मार्ग से स्खलित हो जाता है, फिसल जाता है जैसे मेनका से विश्वामित्र । मृत्यु होने से योग-भ्रष्ट नहीं होता । मृत्यु तो जीवन का सिर्फ पड़ाव है । एक शरीर छूटा तो दूसरे से यात्रा चालू हो गयी । एक चप्पल घिस गई तो दूसरी पहन ली । इससे योग के सातत्य में पड़ाव के सिवाय और कोई बुनियादी असर नहीं पड़ सकता । शंकराचार्य की तो युवावस्था में ही मृत्यु हो गई थी । उन्होंने जो पाया और जो उचारा, वह वास्तव में उनके पूर्व-जन्म के योग-प्रवाह के सातत्य का प्रतिफल था । नचिकेता यमराज के पास जाकर भी वापस लौट आया । यह एक छोटे बच्चे का 'भव-प्रत्यय' है । महावीर के शिष्य 'अतिमुक्त' ने मात्र दस वर्ष की उम्र में अमृत-पद प्राप्त कर लिया था । प्रतिभा का संस्कार-सातत्य कब अपना अमृत-पुष्प खिला देता है, इसका कोई मापक-यन्त्र नहीं है ।
जिनके जीवन में पूर्व जन्म के प्रवाह के सातत्य के कारण कुछ होता है, उनकी बात अलग है । उनका दीया तो तैयार है, बस ज्योति की याद आनी चाहिये । आम आदमी को तो ज्योति की खोज करनी होगी, चिंगारी को ढूंढ़ना होगा, समर्पित होकर, संकल्पपूर्वक, एक स्मृतिलय होकर, एक होशपूर्वक । दूसरे साधकों का योग श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा सिद्ध होता है और वह भी क्रमशः- 'श्रद्धा-वीर्य-स्मृति-समाधि-प्रज्ञापूर्वकम् इतरेषाम्' ।
साधना के ये चरण बहुत सारे लगते हैं, पर ये वास्तव में एक ही हैं या एक-जैसे हैं । शब्दों का थोड़ा फर्क है । शाब्दिक अर्थों में भी कुछ भेद हो सकता है, पर समाधि का मार्ग स्वयं समाधि ही है, इसके लिए हमें श्रम कुछ नहीं करना है । आवश्यकता है मात्र ध्यान की ।
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