________________
चलें, मन-के-पार
१७०
सारे भेदभाव भूल जाता है। श्रद्धा नींद की तरह मीठी है । जिसके प्रति श्रद्धा हो गई, उसके लिए तो उससे बढ़कर और कोई नहीं है ।
श्रद्धा प्रेम है, पर प्रेम होते हुए भी प्रेम से बढ़कर है । प्रेम तो पति-पत्नी के बीच भी होता है । प्रेम शारीरिक भी हो सकता है | श्रद्धा विशुद्ध प्रेम है । श्रद्धा का शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं होता । श्रद्धा हृदय की अभिव्यक्ति है, हृदय की प्यास है । श्रद्धा में निकलने वाले आँसू कोरा पानी नहीं है, वह हृदय की - अंजुरी है ।
श्रद्धा और समर्पण की सबसे ज्यादा मात्रा स्त्रियों में होती है । स्त्रियाँ ध्यान के मार्ग पर जल्दी गति कर सकती हैं। पुरुष की यात्रा बुद्धि से होती है, पर स्त्रियों की श्रद्धा से । एक वैज्ञानिक है, दूसरा हार्दिक । ध्यान विज्ञान का नहीं, हृदय का मार्ग है । धर्म हृदय का प्रवाह है और श्रद्धा उसका मूल स्त्रोत है ।
जरा मन टटोलो- अभी श्रद्धा कहाँ है ? अभी तो पूँजी के प्रति, पद के प्रति, प्रतिष्ठा के प्रति है । पूँजी के पिछलग्गू बने हो; वह तो यहीं पड़ी रह जाएगी - जब हंसा उड़ जाएगा । पूँजी जीवन-यापन के लिए है । वह व्यक्ति नासमझ है, जो जीवन को पूँजी के लिए खर्च कर रहा है । पूँजी से इतना चिपका है कि
एक द्वार पर किसी के पैरों की आहट सुनाई दी । उसने अपना चश्मा ठीक तरीके से लगाते हुए पूछा, कौन है ? आगन्तुक ने कहा, तेरी मौत । व्यक्ति ने कहा, तब कोई हर्ज़ा नहीं, मैंने सोचा कहीं इन्कमटैक्स वाले तो नहीं आ गये । तुम आ गये, चलेगा, वे नहीं आने चाहिये ।
अभी तुम्हारी श्रद्धा जीवन के प्रति नहीं, पूँजी के प्रति है । तुम्हें चिन्ता आयकर वालों की है, मृत्यु की नहीं । असली पूँजी तो जीवन है, परमात्मा है । उसे बचाओ । उसे बटोरी ।
या फिर समर्पित हो पद के प्रति । पद सफेद झूठ है । सारे पद कुर्सियों के हैं । कुर्सी बड़ी लग गयी, तुम बड़े लगने लग गये । एक बात ध्यान रखिये कि इससे मात्र कुर्सी बड़ी हुई है, व्यक्ति बड़ा न हुआ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org