________________
समाधि का प्रवेश-द्वार
१७१ धन से प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी, खुशामदी करने वाले मिल जाएंगे । पद मिल जाएगा, पर पद से नीचे उतरे तो ? फिर कौन पूछता है । असली प्रतिष्ठा तो भीतर है । जिसके हृदय में परमात्मा प्रतिष्ठित हो जाता है, वह अमृद-पद का स्वामी है । श्रद्धा इसी अन्तर-प्रतिष्ठा की पहल है ।।
साधना-पथ का दूसरा सोपान है वीर्य । वीर्य शक्ति का प्रतीक है, संकल्प और सामर्थ्य का परिचायक है । यहाँ वीर्य का सम्बन्ध शरीर के शुक्राणुओं से नहीं है । यह आत्म-ऊर्जा की बात है, मनोसंकल्प की चर्चा है । ब्रह्मचर्य उसी आत्म-ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करता है। लोगों ने ब्रह्मचर्य को न भोगने के साथ जोड़ा है । भोग से ब्रह्मचर्य का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है । ऐसे कई लोग मिलेंगे, जिन्होंने कभी सहवास न किया हो, पर इतने मात्र से वे ब्रह्मचारी नहीं हो गये । वे तो अभोगी हुए । ब्रह्मचर्य अभोग नहीं है । ब्रह्मचर्य चर्या है । खुद में चलना ही ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचर्य वास्तव में ब्रह्म-विहार है । अभोगी रुका हुआ है । ब्रह्मचारी कर्म-योग और ब्रह्मयोग का संवाहक है । वह भीतर डूबता है । वह अपने वीर्य/ऊर्जा को पूर्ण सत्य की प्राप्ति में लगाता है । उसने वीर्य रोका नहीं, अपितु उसका जीवन-विकास के लिए उपयोग किया । भोगी उसे शरीर के बाहर निकाल कर उसकी सारवत्ता व मूल्यवत्ता को असार व निर्मूल्य कर देता है । अभोगी इसे भीतर दबा लेता है । ब्रह्मचारी उसकी शक्ति को ऊर्ध्वगामी बना लेता है । जिसे हम कुण्डलिनी-का-ऊ/रोहण कहते हैं, वह दूसरे अर्थों में इसी शक्ति की शिखर-यात्रा है ।
साधना के ऊँचे शिखरों को छूने के लिए हमें सामर्थ्य तो जुटाना होगा । असमर्थ व्यक्ति जीवन-का-कारवाँ मंजिल तक नहीं ले जा सकता । यदि सीढ़ियों को पार करना है, तो पाँवों की मजबूती तो चाहिये ही । बिना सामर्थ्य के तो आदमी को सीढ़ी ही मंजिल लगती है । शरीर भी स्वस्थ हो, मन भी तन्दुरस्त हो, तभी तो सफर आसानी से होगा । संघर्ष तो यहाँ भी करना होगा । नदिया के बहते पानी के साथ बहना हो तो बात अलग है । यहाँ बहना नहीं है, यहाँ तो तैरना है । किश्ती को किनारे पर नहीं रखना है । इसे तो भँवर के खतरों से गुजरना है, कहीं ऐसा न हो कि कर्तव्य-पथ पर कदम उठाने के बाद हम फिसल पड़ें ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org