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चलें, मन-के-पार
अपने इर्द-गिर्द देखता हूँ कि हर कोई जन्म लेता है, पलता है, बढ़ता है, संघर्ष करता है, ऐश-आराम, मौज-मस्ती करता है और फिर अपने बनाये-बसाये संसार को छोड़कर एक दिन मर जाता है । यह एक बंधी - बंधाई लीक दिखाई देती है । लोग इसी लीक पर चलते हैं । कोई आराम से गुजर रहा है, तो कोई कठिनाई से । अब सवाल यह है कि क्या यही जीवन है । यदि है, तो जानवर और इंसान में कोई बिचौलिया फर्क नहीं है ? और यदि यह जीवन नहीं, तो फिर वास्तव में जीवन क्या है ? जीने के उद्देश्य क्या होते हैं ? मैं इस प्रश्न को मात्र प्रश्न नहीं कहूँगा । मैं इसे जीवन के प्रति एक सघन जिज्ञासा कहूँगा । मन में ऐसे प्रश्न उभरने भी कोई सामान्य बात नहीं है । यह पहेली नहीं, जीवन के प्रति जागने की पहल है । जब तक यह हकीकत में न होगी, तब तक जीवन में किसी भी प्रकार का रूपान्तरण घटित ही न हो पाएगा ।
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जीवन में क्रान्ति उपदेशों से नहीं, जिज्ञासा और अभीप्सा से घटित होती है । जीवन में लगने वाली चोटों और ठोकरों से भी अगर इन्सान कुछ न सीख सके, न जग सके, तो वह जीवन के प्रति लापरवाह कहलाएगा । क्या उसे तुम जिंदा कहोगे ? वह तो चलता-फिरता मुर्दा है ।
जहाँ जीवन के परिसर में चोट लगती है, वहाँ आदमी उसका हर हाल में समाधान पाना चाहता है । वह प्रश्न उसे बेचैन कर देता है । दुनिया में आत्मदाह और आत्मघात की घटनाएं ऐसे मानसिक प्रश्नों के कारण हुई हैं ।
जिन्दगी सभी जी रहे हैं । कोई नदी के किनारे बैठा पानी का कलकल निनाद सुन रहा है । कोई बाँसुरी के सुरों में खोया है । कोई चरवाहा बना पहाड़ों में भेड़-बकरियों को हाँक रहा है । कोई भीड़ से बचकर निकलना चाहता है । कहीं लोग दिन भर मेहनत करते हैं और रात को शराब की मदहोशी में पड़े रहते हैं । कोई रात को जुआघर में दिखाई देता है, तो कहीं लोग फुटपाथ पर पड़े मिलेंगे । उनके अगल-बगल शहर की गंदगी पड़ी है, मच्छर भिन- भिना रहे हैं, पर वे इन सबसे बेखबर सम्राट से भी बेहतर नींद सो रहे हैं । आखिर ज़िन्दगी क्या है; क्या यही ज़िन्दगी है ?
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