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चलें, मन-के-पार १५४ सबके पार है- मन के, वचन के, शरीर के । शरीर आत्मा के लिए है, ऐसा नहीं । आत्मा की उपस्थिति के कारण शरीर नहीं है, अपितु आत्मा की उपस्थिति विदेह के निमित्त है । जहाँ देह की स्वस्थ अनुभूति है, वहाँ स्वास्थ्य नहीं है । असली स्वास्थ्य-लाभ तो वहाँ है, जहाँ देह-के-अनुभव की कोई गुंजाइश ही नहीं है ।
मित्र-साधक मुझसे मशविरा करते हैं चैतन्य-दर्शन के लिए, अनन्त की अनुभूति के लिए । मेरी सलाह रहती है स्वयं को ऊपर उठाने की । पात्र की चमक जरूर पाना चाहते हो, किन्तु इसके लिए पहले उसे मांजने की पहल की जानी चाहिये । स्वयं को ज्योतित देखने का एकमात्र उपाय यही है कि अपने आपको विदेह में, निर्वचन में, अमन में झांको । पारदर्शी हुए बगैर स्वयं तक न पहुँच सकोगे । मुझे भी जानना चाहो, तो देह के-पार देखो । क्योंकि में देह नहीं हूँ। मैं देह में हूँ, पर देह नहीं हूँ । स्वयं को भी ऐसे ही देखो देह-के-परदों-के-पार । विदेह की अनुभूति घर के दरवाजे का वह छेद है, जिससे अन्तर-जीवन के कक्ष में सजी मौलिकताओं को नजर मुहैया किया जा सकता है । शरीर जड़ है और ध्यान के लिए जड़ के प्रति होने वाले तादात्म्य की अन्त्येष्टि अनिवार्य है । मन में शब्दों की भारी भीड़ और भारी कोलाहल है । जो अपने मन से ऊपर उठ जाता है, वह सबके मन से ऊपर उठ जाता है । मन का पारदर्शी सिर्फ स्वयं को ही शरीर, वचन और मन से अलग नहीं देखता, वरन् दूसरों के जीवन का भी आत्म-दृष्टि से मूल्याकंन करता है । अन्तर की इस वैज्ञानिक पहल का नाम ही भेद-विज्ञान है ।
___ ध्यान हमारी आँख है । जिसकी हथेली से ध्यान छूट गया, उसका जीवन इकार-रहित 'शिव' है । जिसकी आँख ही फूट गई है, उस बेचारे को तो अन्धा कहना ही पड़ता है, पर बड़ा अन्धा तो वह है, जिसने ध्यान की आँख में लापरवाही से सुई चुभा दी है ।
आज सुबह की बात है । एक सज्जन मेरे पास आये । कहने लगे, मैं बीस साल से ध्यान करता हूँ वह भी रोजाना चार-पाँच घण्टे । मेरे गुरुजी ने मुझे ध्यान सिखाया है । मैंने पूछा, वह कैसे ? उसने झट से पद्मासन लगाया और स्वयं को अकम्प/अडोल बना लिया । मैंने कहा,
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