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चलें, मन-के-पार पसंद नहीं करते । उनकी पसंदगी तो प्रेम है । प्रेम परमात्मा का हृदय है । गूंगा प्रार्थना बोल नहीं सकता, लेकिन वह प्रार्थना कर सकता है । बोलना यदि प्रेम-पूर्वक हो, तो वे बोल केवल वाक्-पटु प्रार्थना नहीं रह जाते, वे परमात्मा की आँखों का कोइया बन जाते हैं ।
प्रेम भी मार्ग है, ध्यान भी मार्ग है । सच तो यह है कि ध्यान प्रेम से अलग नहीं है और प्रेम ध्यान से जुदा नहीं है । ध्यान का अन्तर-व्यक्तित्व प्रेम बन जाता है, और प्रेम ध्यान का बुर्का पहन लेता है । इसलिए ध्यान प्रेम है और प्रेम ध्यान । मार्ग चाहे जो अपनाया जाये, मंजिल के करीब पहुँचते-पहुँचते सारे मार्ग एक हो जाते हैं । मार्ग तो आदमी की सुविधा के अनुसार बनाये जाते हैं । आदमी भी भला एक जैसे कहाँ होते हैं । कोई मोटा है, कोई पतला; कोई लम्बा है, तो कोई बौना; कोई तार्किक है, तो कोई याज्ञिक; कोई पण्डित है तो कोई पुजारी । जब आदमी ही एक नहीं है तो मार्ग एक कैसे होगा ! मार्ग अनन्त हैं । जिसकी जैसी रुचि हो, वैसे मार्ग पर अपने कदम बढ़ाएं ।
सारे मार्ग ध्यान के ही रूप हैं । उपासना भी ध्यान है, ज्ञान-स्वाध्याय भी ध्यान है, कर्म और भक्ति भी ध्यान है । अन्तराय, चित्त-विक्षेप, दुःखदौर से मनुष्य को दूर रखने के लिए ही ध्यान है । 'तत्प्रतिषेधार्थं एकतत्त्वाभ्यासः' । ध्यान एक तत्त्व का अभ्यास है । जब चित्त की वृत्तियाँ किसी एक ही वृत्ति में जाकर विलीन हो जाती हैं- जैसे नदियाँ सागर में समा जाती हैं- तो वृत्तियों की ऊहापोह-अवस्था तिरोहित हो जाती है । एक का स्मरण, एक के अतिरिक्त सबका विस्मरण यह लक्ष्योन्मुख सत्य की उपलब्धि का मार्ग है । स्वयं को केन्द्रित करो किसी एक तत्त्व पर, चाहे वह ईश्वर-की-उपासना हो, 'ॐ' पर ध्यान-का-केन्द्रीकरण हो, वीतराग के आदर्श का पल्लवन हो, या और कोई मार्ग हो; मार्ग मात्र मंजिल तक पहुँचने का माध्यम है । मंजिल चित्त-की-शुद्धावस्था है, मन का-मौन है, विकल्पों-के-जुकाम-से-मुक्ति है । किस प्रक्रिया से परम अवस्था को उपलब्ध करते हो, यह बात मामूली है । यात्रा ही महत्त्वपूर्ण है । चिकित्सा-पद्धति पर अधिक मत उलझो । जिससे स्वस्थ हो सको, वही तुम्हारे लिए सही है ।
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