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ध्यान : संकल्प और निष्ठा की पराकाष्ठा
११६ सत्य शान्ति है । अशान्ति को मन से बिसार देना ही जीवन में शान्ति का अभ्युदय है । अशान्ति का मूल कारण हमारे मन की ऊहापोह है । मन से मुक्त होने का अर्थ है, मन का शान्त हो जाना । इसलिए शान्ति वास्तव में मन-की-अनुपस्थिति है । मन की रौद्रता के रहते शान्ति कहाँ ? शान्ति की शुक्लता कहाँ ? रौद्रता अशुभ है और शुक्लता शुभ । ध्यान रौद्रता से अलगाव है, शुक्लता में प्रवेश है । जो मन व्यक्ति के नियन्त्रण से बाहर है, वह रौद्र है । मन का नियन्त्रण होना ही शुक्ल ध्यान है । मन जितना सुथरा होगा, ध्यान उतना ही साफ-स्वच्छ होगा, शान्ति उतनी ही हरी-भरी होगी ।
___ मनुष्य स्वयं सत्य है । सत्य की प्राप्ति के मार्ग अनगिनत हैं । औरों की बात न भी उठाएँ, मनुष्य यदि मनुष्य को भी जान-समझ ले, तब भी उसकी उपलब्धि ओछी नहीं कहलाएगी । मनुष्य ने मनुष्य को जाना, मनुष्य ने मनुष्य को पाया, यह वास्तव में सत्य को जानना और पाना है । मनुष्य को जानने का मतलब है अपने आपको जानना । आत्म-ज्ञान इसी का दूसरा नाम है । कैवल्य और सम्बोधि इसी के शिखर हैं । आत्म-ज्ञान से बढ़कर सत्य-ज्ञान का कोई दूसरा हिमायती रूप नहीं हो सकता ।
मनुष्य विचार-प्रधान भी है और भाव-प्रधान भी । वह बहिर्मुखी भी है और अन्तर्मुखी भी । बहिर्मुखी के लिए अन्तर-यात्रा बेहद कठिन है । अन्तर्मुखी के लिए बहिर्यात्रा पहाड़ी पगडण्डियों पर चलना है ।
विचार-प्रधान व्यक्ति ज्ञानी है, और भाव-प्रधान प्रेमी । ज्ञानी ध्यान को अपनी नाव बनाता है और प्रेमी प्रार्थना को । ध्यान भी एक मार्ग है
और प्रार्थना भी एक मार्ग है । ध्यान अलग ढंग की नौका है और प्रार्थना अलग ढंग की । ध्यानी भी पार लगता है और प्रेमी भी । महावीर और बुद्ध जैसे लोग ध्यान से पार लगे, यीशू और मीरा जैसे प्रेम के मार्ग से ।
प्रार्थना का अर्थ ही प्रेम होता है । वह प्रार्थना केवल शब्द-जाल है, जो प्रेम-रहित है । परमात्मा छन्दों और अलंकारों से भरी प्रार्थनाओं को
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