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ध्यान : स्वयं के आर-पार
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देखने की कला है । जहाँ शरीर, वचन और मन का अन्त आ जाता है वहीं यात्रा प्रारम्भ होती है, अनन्त की । डूबें हम स्वयं में, ताकि उभर पड़े नयनों में नयनाभिराम अन्तर्यामी । निमंत्रण है सारे जहान को अनन्त का, अनन्त-की-लहरों में । अनन्त का निमंत्रण चूकने जैसा नहीं है । स्वयं को आर-पार देखो । शरीर, मन, वचन जीवन की उपलब्धि अवश्य है, पर वह माटी के दीये से ज्यादा नहीं है । उस दीये से ऊपर भी अपनी नजरें उठायें, जहाँ लौ माटी के दीये को प्रकाश में भिगो रही है । ज्योति का आकाश की ओर उठना ही चेतना-का- ऊर्ध्वारोहण है । ज्योति की पहचान से बढ़कर जीवन का कोई बेहतरीन मूल्य नहीं है । मर्त्य में अमर्त्य की पहचान ही अमृत-स्नान है ।
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