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ध्यान : स्वयं के आर-पार
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अगर आपका चित्र खींचा जाय तो लाजवाब होगा । किन्तु वह ध्यान कैसा जो व्यक्ति को पत्थर की मूर्ति मात्र बना दे ।
झिझके । मैंने कहा, पहली बात; ध्यान करते बीस साल हो गये, किन्तु ध्यान हुआ ही नहीं । करना अभ्यास है । बीस साल तक पढ़ने के बावजूद छात्र ही रह गये, गुरु न बन पाये । दूसरी बात ध्यान घंटों के दायरे में नहीं आता । चार-पाँच घंटों तक जो ध्यान करते हैं, वह भीतर का उत्सव बनकर नहीं, वरन् बाहर से भीतर लादते हो । ध्यान तो आठों पहर हो । जब भी कोई पूछे, तुम क्या कर रहे हो; उत्तर आना चाहिए- ध्यान में हूँ । पद्मासन, श्वांस प्रेक्षा, ज्योति - केन्द्र में चित्त-स्थिरता, दो घंटे की बैठक - यह सब तो सुबह-शाम ली जाने वाली दवा की गोली मात्र है, ताकि उसकी तरंग दिन-भर / रात-भर रहे ।
मुझे ध्यान से उज्ज्वलताएँ मिली हैं; पर मैं उस ध्यान में डूबा रहता हूँ, जो मुझे मुरझाए नहीं, हुलसाए ।
ध्यान सिर्फ शरीर को अकड़ कर बैठना नहीं है, श्वास पर नजर की टकटकी बाँधना नहीं है । ध्यान रोजमर्रा की जिन्दगी से जुदा नहीं है । दफ्तर में काम करना, दुकान में कपड़ा नापना, घर में रसोई बनाना सबमें एकाग्रता के गीत सुनाई देते हैं । ध्यान एकाग्रता की निर्मिति है । जहाँ एकाग्रता वहाँ ध्यान और जहाँ ध्यान वहाँ जीवन की पहचान । जो ध्यान से चूका वह जीवन से चूका, जो ध्यान से जुड़ा वह जीवन से जुड़ा ।
ध्यान जीवन की समग्र एकाग्रता है । जियो | जीवन जीने के लिए है । जीवन जन्म और मृत्यु के बीच सिर्फ टहलना नहीं है, जीवन आनन्द के लिए है, उत्सव के लिए है । जीवन सिर्फ गति के लिए ही नहीं है, गीत के लिए भी है । उसमें संगीत भरो; अन्तर- शक्तियों को तनावमुक्त करो । खाओ मगर ध्यान पूर्वक; पियो, मगर ध्यान के साथ; मौज उड़ाओ मगर ध्यान को आत्मसात् कर । जीवन की हर प्रवृत्ति में सजगता और निर्लिप्तता का वाक्य विन्यास करना अपने ही हाथों से अपना वेद रचना है । ध्यानपूर्वक चलना, ध्यानपूर्वक बैठना, ध्यानपूर्वक सोना, ध्यानपूर्वक खाना, ध्यानपूर्वक बोलना समाधि की मंजिल की ओर
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