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ध्यान : स्वयं के आर-पार
ध्यान स्वयं की मौलिकताओं को पहचानने की प्रक्रिया है । ध्यान का सम्बन्ध मन, वचन और शरीर के व्यापारों के नियंत्रण से है । आत्मा का न कभी हास होता है, न ही विकास | संकोच और विस्तार तो दीवार के आकार-प्रकार में होता है, रोशनी के फैलाव की दूरी / नजदीकी में होता है; किन्तु रोशनी में नहीं ।
आत्मा तो चैतन्य-ज्योति है । परतों से रुंधी पड़ी है आमा । छोटे कक्ष में दीप की रोशनी बौनी लगती है, वहीं महल में भूमा । सूरज में कहाँ फर्क आता है रोशनी की निगाहों से; किन्तु एक छोटे-से बादल का परदा उसकी सारी उज्ज्वलताओं को अपनी काख में दबा लेता है । ध्यान सूरज की रोशनी को पाना नहीं है वरन् आवरणों का उघाड़ना है । स्रोत प्रकट करने के लिये जरूरत है चट्टानों को हटाने की । इसलिए ध्यान स्वयं को बेनकाब करने का अभियान है | ध्यान है महाशून्य में प्रवेश करने के लिए, छिलकों को उतारने के लिए ।
व्यक्ति को अपनी जिन्दगी में कमल की पंखुड़ियों की तरह जीना होता है । संसार में रहना खतरों को बुलावा नहीं है | आखिर ऐसा कोई ठौर भी तो नहीं है, जो संसार से जुदा-बिछुड़ा हो ।
मित्र समझते हैं कि गुफा का जीवन ही संन्यास है । गुफा के फायदे जरूर हैं, पर गुफा की सत्ता संसार की समग्रता से अलग-थलग नहीं है । आम आदमी के लिए यह संभव भी नहीं है कि वह घर-बार से नाक-भों सिकोड़कर गुफावासी बन जाए । वह ध्यान टेढ़ी खीर है, जिसे साधने के लिए व्यक्ति सिर्फ गुफावासी ही हो । ध्यान तो जीवन की परछाई है । अपनी छाया को छोड़कर आदमी कहाँ भाग सकेगा ? अपनी छाया
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