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सार्वभौम है ॐ
१११ है । उसे कहने और सुनने में डूबा जा सकता है, परन्तु अर्थ की सीमाओं में उसको नहीं लाया जा सकता है । 'ॐ' अर्थों से ऊपर है, अर्थातीत है ।
इसलिए 'ओम्' में सिर्फ जिया जा सकता है । जो मुँह से बोलने, मन से बोलने, अन्तस्तल से बोलने लग जाता है, उसकी चक्र-संधान की यात्रा पूरी हो जाती है । उसका विश्राम तो फिर अनहद में होता है, सहस्रार में, ब्रह्मरन्ध्र में ।
पहले पहल तो 'ओम्' को बोला जाता है, सुना जाता है, किन्तु सिद्धत्व के करीब सिर्फ अनुभूति की जाती है, अहसास में सुना जाता है । बिना बोले भी सुना जाता है । यह कम दिलचस्प बात नहीं है कि भगवान को देखा नहीं जा सकता, वरन् सुना जा सकता है । भगवान की अभिव्यक्ति 'ॐ' के रूप में होती है । 'ॐ' को देखोगे कैसे ? उसे तो सुनोगे ही । दृष्टा होने का अर्थ केवल देखना नहीं है । जो दिखायी दे रहा है, उससे हटना है । जब दिखना बन्द हो गया, तभी हकीकत में सुनना प्रारम्भ हुआ और यह श्रवण तब पुरजोर होता है, साधक सातवें शरीर में अपने कदम पाता है । यह पराकाष्ठा है ।
____ 'ॐ' से साध्य की खोज प्रारम्भ करो । सम्भव है पहले हम लड़खड़ायेंगे, तुतलायेंगे, लोग मजाक भी उड़ायेंगे, पर घबराना मत | यदि भयभीत हो गये, तो कैसे दौड़ पाओगे किसी प्रतियोगिता में । कोई माघ, या मैक्समूलर कैसे पैदा होगा ? आखिर बीज बोते ही तो बरगद नहीं बनता । माली का काम सींचना है, फल तो तब पैदा होंगे जब ऋतु आयेगी । ऋतु ज्यादा दूर नहीं है । किसी की ऋतु तो चेतना के द्वार पर आठ वर्ष की उम्र में भी आ जाती है, तो किसी को अस्सी वर्ष तक भी इन्तजार करना पड़ता है | ऋतु तो पर्वत के पीछे खड़ी है, हम उसके पास कब पहुँचते हैं, सब कुछ हमारी तैयारी पर, संलग्नता और समग्रता पर निर्भर है ।
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